जापानी साहित्य की विधाओं में हाइकु, लोकप्रियता में अग्रणी है, ताँका एवं सेदोका इसके पीछे चलते हैं। इन विधाओं का अब पूर्णतः भारतीयकरण हो चुका है एवं हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह इनकी साधना,लेखन, पठन… आदि प्रचलन में है।
सेदोका 5,7,7,5,7,7 यानि 38 वर्ण की छह पंक्तियों की पूर्ण कविता है। यह दो अपूर्ण कतौता से मिलकर ही पूर्ण मानी गयी है। वर्तमान में इसे सोशल मीडिया के विविध प्लेटफॉर्म पर पढ़ा जा सकता है; इसके साधक देश-विदेश में अपनी साधना में लगे हुए हैं। प्रमुख सेदोकाकार इस प्रकार हैं-डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, डॉ. रामनिवास मानव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. भावना कुँवर, देवेन्द्र नारायण दास, डॉ. हरदीप कौर संधू, डॉ. कृष्णा वर्मा, डॉ. सुदर्शन रत्नाकर, विभा रानी श्रीवास्तव एवं प्रदीप दाश ‘दीपक’ जिनके मार्गदर्शन में सेदोका साँसे ले रही है। ‘त्रिवेणी’ ब्लॉग में सेदोका से संबंधित जानकारी एवं प्रकाशन प्रशंसनीय रुप से लगातार जारी है।
श्रेष्ठ साहित्य की रचना किसी कठिन साधना से कम नहीं है। समीक्षित कृति ‘फुलेरा’ रमेश कुमार सोनी की सद्य प्रकाशित छत्तीसगढ़ी सेदोका संग्रह है जो विश्व की प्रथम छत्तीसगढ़ी सेदोका संग्रह है। इसे छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग रायपुर ने प्रकाशित किया है इसलिए अब यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की थाती बन चुकी है।
समर्थ रचनाकार रमेश कुमार सोनी ने साहित्य रुपी शिव को साधने पार्वती सा साधना में लीन रहकर ‘फुलेरा’ को रचा है। आपने हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लेखन किया है जो अनुकरणीय है। इसके पहले आपने छतीसगढी़ में हाइकु संग्रह, प्रथम छत्तीसगढ़ी ताँका संग्रह (हरियर मड़वा) द्वारा छतीसगढी़ साहित्य के विकास की संभावना को मुक्ताकाश दिया है। यहाँ परिपक्व मानवीय संवेदनाओं में बौद्धिकता है एवं रचनात्मकता निखरकर प्रस्तुत हुई है। ऐसे ही आपके द्वारा रचित 'फुलेरा' सेदोका संग्रह शीर्षक से लेकर अंतिम सेदोका तक छतीसगढी़ के रंग में रंगी हुई है।
‘फुलेरा’ सबके दिलों में सावनी तीज के शृंगार की महक व पावनता का संचार करता हुआ प्रस्तुत हुआ है। छत्तीसगढ़ में तीजा-पोरा का त्यौहार विशेष मायने रखता है इस दिन बहुएँ अपने मायके में आकर पति की लंबी उम्र की कामना का निर्जला व्रत करती हैं। मायके आना और मनचाही भेंट प्राप्त करना ख़ुशी में चौतरफा वृद्धि करती है। इस पर्व के प्रमुख पकवानों में ठेठरी-खुरमी प्रसिद्ध हैं जिसका स्वाद वर्ष भर तक बने रहता है। पोला में मिट्टी के बैल और रसोई के खिलौने बच्चों को भाते हैं।
*तीजा-लुगरा/माहुर ल रचाए/मइके म हे नोनी/गाँव माहके/सहेली संग हाँसे/काय बोलथव ओ?
स्वर्णिम रश्मियों से रंगी भोर को आपने सोनहा बिहान कहा है। इसके सेदोका की उजास और स्फूर्ति से यह खंड भरा हुआ है। प्रकृति और मौसम इसके केंद्रीय भाव में हैं। बसंत, सावन, पतझड़, चाँद, नदी, वन…..,पहाड़ का सौंदर्य के भाव से सेदोका पगे हुए हैं। सोनहा बिहान प्रतीक है खुशहाली का इन सेदोका में एक साथ कई बिम्ब और प्रतीक हैं।
*मोहनी डारे/हाँसथे जी गुलाब/ममहागे बियारा/ताके बइठे/कोन घर जाबे जी?/बिजरावत हस।
*बादर बेर्रा/टार्च मारके देखे/कहाँ बरसना हे/भादो के पूरा/घर-दुआर बुड़े/बचा ले भगवान!
नवा बिहान में चिरई संग माँ का जागना किसी भी प्रकृति प्रेमी को जीवंत कर देगा। ये पँक्तियाँ छत्तीसगढ़ी संस्कृति और परम्परा को सुघड़ता से प्रस्तुत कर रही हैं-
*पैजेब बाजे/बिहनिया होवथे/कमइलीन दाई/बुता चिन्हथे/बिहान के चिरई/सुकवा के अँजोर।
मौसम की बेरुखी और मानवों के लोभ को प्रकृति सहन नहीं कर पा रही है। आपने पेड़ नहीं काटा बल्कि काटी है छाँह, हवा,नमी, औषधी, फल-फूल और पक्षियों का बसेरा अब इसी के लिए आप तरस रहे हैं। प्रदूषण सर्वत्र हाहाकार मचाया हुआ है। गौ माता की सेवा से मुख मोड़ते इस समाज में वे अपने चारे के लिए भटकते हुए प्लास्टिक को आहार बनाने लगे हैं इन्ही भावों को इन सेदोका में देखिए-
*रुख के छाँव/पइसा मं बिसोय/साँस बर घलो दे/ठाढ़ होय के/पइसा गन बाबू/काबर काटे रुख।
*घुरुवा होगे/गाय के पेट घलो/प्लास्टिक निकलथे!/ चारा नंदागे/दूध नकली होगे/गोठान सुन्ना परे।
आरुग मया-शीर्षक पढ़कर ही मन को पावनता का अहसास होने लगता है।आरुग शब्द की पावनता को कोई भक्त ही समझ सकता है। अपने ईश्वर को आरुग भाव से अर्पित करने की चाह भक्तों को जिज्ञासु व खोजी बना देता है। छतीसगढ़ महतारी को आरुग मया समर्पित करने की आपकी इच्छा ही नही जुनून भी है,जो ‘फुलेरा’ के रूप में समर्पित हुई हैं। आरुग मया के प्रत्येक सेदोका हृदय की प्रेम तान छेड़ते लग रहे हैं। पढ़कर मन में गुदगुदी होने लगती है। मया-पिरित के छतीसगढ़ी उपादान करौंदा के समान चटकारें लगाने को मजबूर कर देता है। प्रेम के भरे इन सेदोका में बहुत कुछ समेटा हुआ है-
*मन हिरना/तोरेच्च पारा जाथे/मया कर ले कर/सुरता भारी/खोइला होगे जीव/मया बरसा देते।
*हिरनी चाल/कनिहा म घघरी/मऊहा कस नशा/मया बगरे/ददरिया सुनाथे/तोर सांटी मयारु।
*सँझा के दीया/मोर जँवारा बारे/झुँझकुर चुँदी मं/गँवागे मन/चँदा कस चेहरा/दीया ह लजावथे।
रिश्ता-नता के झाँपी- छतीसगढ़ की संस्कृति रिश्ता-नता के खज़ाना से सदैव खनकती रही है। प्रभु श्रीराम के ननिहाल होने का गौरव प्राप्त यह भूमि आज भी अपने भाँचा को प्रभु श्रीराम मानकर चरण पखारता है। संबंधों का निर्वाह करने के लिए अपना सर्वस्व लुटा देने की क्षमता यहाँ है जिसे आपने यहाँ रेखांकित किया है। नववधू के स्वागत में घर का कोना-कोना महक जाता है।
*बहू के आती/पुरखा के कुंदरा/मंदिर कस होगे/चऊँक पुरे/अँगना ले रँधनी/नवा खुशी बगरे।
माँ की ममता, बहनों का विश्वास और पिता के स्नेह को नापा नहीं जा सकता और इसे निभने के क्षण अनमोल हैं जो जीवन को महकाते रहते हैं-
*मया नापबे?/अथाह समुंदर/दाई-अँचरा कस/बाबू के छाँव/बहिनी-राखी कस/भाई के विश्वास हे।
छत्तीसगढ़ भी अब आधुनिकता की चपेट में आने लगा है जिसका विपरीत परिणाम रिश्तों में आना स्वाभाविक ही है। रिश्तों में अब आत्मीयता की तलाश बेमानी है बल्कि कृतघ्नता अवश्य दिखाई देती है। हर कोई अपेक्षाओं की बेल पकड़े ऊँचाई पर जाना चाहता है ऐसे ही भाव लिए हुए हैं ये सेदोका-
*कोन काखर/मतलब के गोठ/खा-पी के खसकथें /बखत बेरा/चिन्हबे नइ करे/तैं कोन की मैं कोन?
पहुना शीर्षक में सोनी जी ने जीवन की आसारता ओर मया -मोह का वर्णन किया है। इस खंड में उन्होनें जग की रीति को उजागर किया है। उन्होनें कहा है ये दुनिया किराया के मकान के समान है चार दिन यहाँ रहकर माटी में मिल जाना है इसलिए इस नश्वर देह का अभिमान कैसा?
*किराया खोली/मनखे हे पहुना/मायाजाल अरझे/ मोहिनी डारे/जदुहा हे रुपिया/दुनिया हे भोरहा।
सच-झूठ और सुख-दुःख दोनों समय के पहलू हैं जो हर किसी की ज़िंदगी से होकर अवश्य ही गुजरते हैं। जिनसे बचना कठिन होता है बल्कि इसे निभाना आसान होता है।
सच और झूठ की तराजू में यहाँ झूठ के कई दोस्त और गवाह मिलते हैं जबकि सच को अकेले संघर्ष करना पड़ता है। खुशी का वक़्त जल्दी बीत जाता है जबकि दुःख का समय बहुत भारी और लम्बा लगता है। ऐसे ही भावों में मलाई रुपी सुख को चाँटने मुनु बिलाई को दुःख का प्रतीक बनाया है-
*खुशी के देखे/जम्मो बइहा जाथें/दुःख भुलवारथे/ झाँकत ठाढ़े/खुशी ल चाँटे बर/मुनु-बिलाई कस।
मेला मड़ई छतीसगढ़ को मेला-मड़ई का प्रदेश कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। छतीसगढ़ की संस्कृति को सूक्ष्मता से सेदोको में पिरोकर कवि ने छतीसगढ़ के प्रति अपने प्रेम को उजागर किया है। यहाँ का किसान जाँगर तोड़ कमाता है और वैसे ही उत्सव भी दिल खोलकर मनाता है। इस हेतु गाँवों में विविध प्रकार के मेला-मड़ई निरंतर आयोजित होते रहता है।
*मेला-मड़ई/नाचा-गम्मत धरे/पीरा-भूलवारथें/रागी बजाथे/पंडवानी देखैया/अँजोर बगरथे।
पूरा गाँव छेरछेरा पुन्नी में माँदर की थाप में झूमते रहता है। हरेली की पूजा, शबरी की भक्ति,सुआ नृत्य,रामनामी, भोजली बदना,बसदेवा का गीत, हरबोलवा की गूँज, पालो चढ़ाना, पंडवानी में रागी का हव, फुगड़ी, सोहाई-बरवाही, राउत नाचा….एवं खुमरी-भंदई। ये सब अपनी-अपनी पहचानों के साथ समवेत रुप से छत्तीसगढ़ को बनाते हैं-धान का कटोरा और यहाँ के लोगों को- छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया।
*गाँव मताय/छेरछेरा-तिहार/दान दे के उछाह/बाँटे ले बाढ़े/खुशी,अन्न,पइसा/असीस झोंक बाबू।
छत्तीसगढ़ी ग्रामीण संस्कृति अब भी इसकी गॉंवों में साँसे लेती है जिसकी धमक सत्ता और समय दोनों को चुनौती देते रहती है। युवा पीढ़ी का दायित्व है कि वो अपनी धरोहरों पर गर्व करना सीखें तथा इसे संवारें।
*गोदना वाली/हिरदे मं गोद दे/सीता-राम के नांव/मन रंगाही/फागुन रंग नवा/मया सुआ नाचही।
संसो के घाम-इस खंड के के केंद्र में किसान और गाँव है। किसानों की दुर्दशा है, कर्ज़ और मौसम की मार है। सभी उपायों से हताश लोगों के लिए शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की ललकार है। बँटवारे का दर्द है, अधिया प्रथा से उपजी समस्या के मूल में जाँगर ना चलाना है। मोबाइल के साइड इफेक्ट्स का भी उल्लेख है। कुल मिलाकर आपने सेदोका साहित्य के द्वारा समस्याओं को पहचाना है तथा इससे बचने के उपायों को रेखांकित किया है-
*करजा बाढ़े/किसानी संसो माढ़े/बादर ह भगागे
/करा गिरीस/किरा मन झंपागे/का ला बदँव जोड़ी?
*बन बघवा/अपन धोंध बर/परदेशी लीलथे/ बइठांगुर/उदाली झन मार/कुआँ-मेचका कस।
शराब/मांसाहार द्वारा गाँव को निगलते जाना यहाँ एक बड़ी समस्या है। यहाँ न्याय के नाम पर हो रही शराबियों की गोलबंदी को भी आपने अपने निशाने पर लिया है-
*नवा फैसला/नियांव करे बर/मंदहा सकलागें!/ जुर्माना होही/कुछु गलती होय/कुकरी भात खाहीं।
रिंगी चिंगी-वर्तमान समय विविधताओं और विसंगतियों के साथ तालमेल बिठाने का है। आप जो देखना चाहें वही आपको दिखेगा इसलिए अच्छा हो कि आप अपनी राह चलिए और अपनी करुणा, दया, संवेदनशीलता जैसे आभूषणों को यथासमय ही धारण कीजिए।
*पानी बेचाथे/लहू के कीमत मं/कोन पोंछही आँसू/ नवा बेमारी/दया-धरम कहाँ/ईमान बेचावथे।
*भूखाय पेट/हँड़िया कस तीपे/चुरथे आश्वासन/तात पसीना/सुरुज ह लजाय/भभकथे करेजा।
आधुनिक युग पूरी तरह बाज़ार की गिरफ़्त में है उसे ज़ेब की गर्मी उतारने का हुनर आता है इसलिए अब वह सबसे अमीर है। इसी बाजार के कारण अनियंत्रित इच्छाओं की पूर्ति से उपजी घूस की समस्या सर्वत्र विद्यमान है जिसके चलते चाय-पानी बदनाम हुए हैं। सशक्त शब्दों का चयन इनके गुरुत्व को बढ़ाते दिख रहे हैं-
*जेब गरु हे!/बजार हरु करे/गर्मी उतार देथे/झन इतरा/इहाँ जम्मो गरीब/बजारेच्च अमीर।
*घूस 'फेमस'/'ऑफिस' के 'फाईल'/पैसा गोड़ बनाथे
/उही रेंगाथे/चाहा-पानी बिचारा/बदनाम होगे जी।
शहर एवं गाँव की अघोषित जंग में गाँव शहर होना चाहता है और शहर चाहकर भी गाँव नहीं हो पा रहा।
*शहरी गोठ/मतलबी रिश्ता हे/बखत बेरा यार/फुर्सत कहाँ/चक्का बाँधे ढुलथें/मोबाइल ज़माना।
‘फुलेरा’ छत्तीसगढ़ी सेदोका संग्रह में आपने छत्तीसगढ़ प्रदेश की परंपराओं एवं संस्कृति की महक को रेखांकित किया है। इस संग्रह के सेदोका के भाव सशक्त हैं बिम्ब एवं प्रतीकों का यथास्थान सुंदर उपयोग आपने किया है। शिल्प पक्ष कसा हुआ है तथा विचारों में सकारात्मकता एवं गहराई है-
*मुड़ी उठाव/रेंगव छाती ठोंक/कन्हार माटी देथे/ बासी सजोर/मयारु हवै भाँचा/उही पार लगाही।
इस संग्रह के लिए मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ। आपने इसके द्वारा सेदोका की नई राह सुझाई है जो शोधार्थियों के लिए अनुकरणीय होगी। आशा है यह संग्रह पाठकों को अवश्य ही पसंद आएगी।
डॉ. सीमा रानी प्रधान
सहायक प्राध्यापक
महाप्रभु वल्लभाचार्य शास.स्नातकोत्तर महाविद्यालय
महासमुंद, छत्तीसगढ़
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फुलेरा-छत्तीसगढ़ी सेदोका संग्रह
रमेश कुमार सोनी
प्रकाशक-राजभाषा आयोग,छत्तीसगढ़-रायपुर 2024
पृष्ठ-81,मूल्य-00/-₹
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