गॉफ के साये में


हाइकु का घनेरा साया

           हिंदी हाइकु देश की सीमाओं को लाँघते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी लोकप्रियता का डंका पीट रहा है। कई देशों से हिंदी हाइकु के एकल संग्रहों का प्रकाशन इसका प्रमाण है। हाइकु के वामन विस्तार से हम सभी गौरवान्वित हैं। ऐसा सब सम्भव हुआ है सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार से, ‘हिंदी हाइकु’ इसका सशक्त पटल है। इसने कइयों को हाइकु लेखन के प्रति आकर्षित किया और उन्हें निखारा। विगत दशकों से एकल और साझा संग्रह,अनुवाद, विशेषांक एवं समीक्षा ग्रंथ से होते हुए हाइकु ने विश्वविद्यालयों के शोध एवं पाठ्यक्रम में अपना दखल सुनिश्चित किया है। हिंदी हाइकु अपने निर्धारित फ्रेम-5,7,5 यानि 17 वर्ण में तीन पंक्तियों की पूर्ण कविता है। यह क्षण मात्र की अनुभूतियों को सृजित करने की मुश्किल विधा है जिसमें भाव एवं विचारों की अभिव्यक्ति होती है। इस जापानी विधा का पूर्णतः हिन्दीकरण हो चुका है अतः अब यह अपनी विषय सीमाओं को लाँघकर मानवीय संवेदनाओं पर भी केंद्रित हो रही है। 

      समीक्षित कृति ‘ग़ाफ़ के साये में’ -डॉ. नितीन उपाध्ये (UAE) का सद्यः प्रकाशित हाइकु संग्रह है। आप पेशे से मेकेनिकल इंजीनियर हैं आप लिखते हैं- 

जमा रहा हूँ/पीपल जैसी जड़ें/परदेस में। 

दूर करता/एक-एक डॉलर/मातृभूमि से। 

आप पर कई साहित्यिक विद्वानों की संगत का प्रभाव पड़ा जिसने आपकी आनुभूतिक चक्षुओं को प्रखर किया। भूमिका में डॉ. जगदीश व्योम लिखते हैं कि- ‘कविता लिखने के लिए शब्दों का जोड़-तोड़ ही नहीं, कुछ और भी जरूरी है। यद्धपि 'कुछ और' को परिभाषित कर पाना सबसे कठिन है। …..'कुछ और' की पूँजी जिस रचनाकार के पास जितनी अधिक होगी, कविता का फलक भी उतना ही विस्तृत होता चला जाएगा। 'कुछ और' में- लोक जीवन से जुड़ाव, प्रकृति के प्रति सहचार्य का भाव, वस्तुओं को देखने की सूक्ष्म और वैज्ञानिक दृष्टि, मनोविज्ञान की समझ आदि-आदि न जाने कितना कुछ समाया हुआ है।’ 

      बढ़ती हुई दुनिया में सिमटते परिवारों की व्यथा किसी से छिपी नहीं है। अपेक्षाओं के बोझ तले सिसकते रिश्तों की आवाज़ दूर तक सुनाई देती है। खून के रिश्तों की गर्माहट को कम आँकते हुए बढ़ते वृद्धाश्रम एवं अनाथालय काफ़ी कुछ कहते हैं। सोशल मीडिया के इस बुरे दौर में रिश्तों के पास अपनों के लिए समय नहीं है यह घोर चिंताजनक है। आपके ज्यादातर हाइकु माँ और पिताजी की स्मृतियों तथा संघर्ष पर केंद्रित हैं। 

घर दफ़्तर/यही पिता की यात्रा/चार धाम की। 

उठा है बच्चा/अब वक़्त कटेगा/दादा-दादी का।

खुली खिड़की/आने लगी घर में/दुनिया सारी। 

द्वारे रंगोली/तुलसी पर दीया/घर में है माँ। 

     इन दिनों बढ़ते व्यभिचार से तमाम लोग हलाकान हैं व्यवस्था की पोल खोलते हुए अपराध और नैतिकता को अपने ठेंगे पर रखे अपराधियों पर ये हाइकु कड़ी चोट करते हुए प्रस्तुत हुए हैं- 

काली निगाहें/कपड़ों के भीतर/रेंगती रही। 

हजारों गिद्ध/लाखों चमगादड़/एक चिड़िया। 

     हमारी प्रकृति हम सब की पालनहार है इसका सौंदर्य प्रत्येक ऋतु में निखरते रहता है। इन ऋतुओं के अपने अलग त्यौहार हैं जो उमंग फैलाते हुए जीवन को नयी आशावादी दृष्टिकोण से ऊर्जान्वित करते हैं। प्रत्येक मौसम की अपनी कहानी है जिसमें ख़ुशी की चहलकदमी है। इन हाइकु में मानवीयकरण के साथ बिम्ब और प्रतीकों का सुंदर तालमेल है-हिंडोला झूला रही पंछियों को हवा, पंछियों की पूरी छुट्टी होने,गंगा नहाके तैयार नाव एवं वसुधा का स्वर्ण लेपन करती रश्मियों की छटा निराली है-

गोदती हवा/आकाश के तन पर/मेघों के टैटू। 

छुट्टी की घंटी/चहचहाते पंक्षी/फुर्र से उड़ें। 

जलाभिषेक/करते धरा पर/मेघ-कलश। 

स्वर्ण लेपती/गंगा के तन पर/रवि रश्मियाँ। 

भोर होते ही/तैयार हुईं नावें/गंगा नहा के। 

    वैश्विक आधुनिकता की आँधी के कारण वसुधा की अकूत संपदा और सौदर्य ने इंसानों को लोभी और भोगी बनाया है। पहले हम इसके संरक्षक होते थे, हमारे बदले आहार से हमारे विचार पहले प्रदूषित हुए और फिर प्रदूषणों की सुरसा का मुँह खुल गया।  आज हमारे पास इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं हैं- ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीनहाउस प्रभाव, अम्लीय वर्षा, सूखा-बाढ़, प्लास्टिक, भूस्खलन, कटते वन,घटते वन्यजीव और सिसकती मृदा। पर्यटकों के बोझ से थके पहाड़, तेज़ाब की वर्षा, नदी की लाश, प्रकृति रक्षा के पैम्पलेट का कूड़ा में पाया जाना जैसे दृश्य अब विचलित करते हैं। आम जनजागरण हेतु ये हाइकु मशाल लिए निकले हैं-

आया शिकारी/जाल में फँसे छौने/चीखा जंगल। 

झुलसा गई/तेज़ाबी बरसात/कोख धरा की। 

बहती रही/शहर में आकर/नदी की लाश। 

प्रकृति रक्षा/कल छपे पोस्टर/आज कूड़े में। 

     आज के युग में मानवीय मूल्यों के ह्रास को हर अख़बारी पन्ने पर पढ़ा जा सकता है। इसकी चिंता सबको है लेकिन समाधान सिर्फ कहने-सलाह देने तक ही सीमित है। तमाम समस्याओं के साथ सत्ता की जुगलबंदी से निकले आश्वासन अपना भरोसा खो चुके हैं। बाजार की सत्ता घरों से होते हुए जेब पर डाका डालने बैठी है और लोग हैं कि किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार हैं ऐसे ही हाइकु के अंदाज़ देखिए-

खाली बगीचे/भरे चिकित्सालय/खाली मैदान। 

हम सामान/हम ख़रीददार/हमीं बाजार।

     आपके हाइकु में भाव एवं विचारों की स्पष्टता है। शिल्प का पालन किया गया और संवेदनाओं को पिरोया गया है। प्रेम, ईश्वर की सबसे बड़ी देन है जिसपर ये दुनिया टिकी हुई है। प्रेम जब किसी को होता है तो उसके अलावा सारी दुनिया को पहले पता चल जाता है। प्रेम-प्यार का गुड़ और तिल-तिल ज़िन्दगी मीठी ही मीठी लगती है, चाय की चुस्कियाँ अधूरी हैं तथा इसमें दो ज़िस्म एक जान होकर एकाकार हो जाते हैं-ये है इस दुनिया की बात। भारत की भक्ति परंपरा में त्याग और समर्पण को उच्च स्थान प्राप्त है जिसमें पाना यानि मोक्ष की कामना है, देह नहीं। इस प्रेम पर जितना लिखा जाए कम ही है फिर भी प्रेम के ये लिफ़ाफे खोलिए जिसे लौटाने की बात इस हाइकु में है, शायद वो आपके लिए हों-

दमक उठा/मन का कोना-कोना/तेरे जिक्र से। 

मैं,मैं न रहा/तुम-तुम न रहे/एक हो गए। 

लौटा आया हूँ/भेंट के लिफ़ाफ़े में/ उसके ख़त। 

हर सुबह/चाय की दो प्यालियाँ/तुम और मैं। 

    इस संग्रह में कुल 501 हाइकु विविध विषयों में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं जिनमें उपविषयों के अनुसार अलग नहीं रखा गया है जिससे पाठकों की दृष्टि बार-बार बदलते रहती है, पढ़ने की एकाग्रता टूट जाती है। ग़ाफ़ का वृक्ष UAE का राष्ट्रीय पेड़ है जिसे भारत में खेजड़ी के नाम से जाना जाता है। रचनात्मकता पूर्णतः ग्रहणशीलता पर आश्रित होती है। प्रत्येक हाइकुकार की अपनी सृजन भूमि होती है, पृथक शब्दावलियों की बगिया होती है जहाँ से उस अनुभूत दृश्य को शब्दों में पिरोने हर बार वह स्वयं को व्यक्त करता है। आपने जो कुछ विदेश में अनुभूत किया उसका सुंदर मानवीयकरण इन हाइकु में दृष्टव्य है। आप लिखते हैं- प्यासी हवाएँ मिलों ढूँढती हैं पानी, हवा को काटते उड़ते हैं रेत के कण, गॉफ के वृक्ष का भागते हुए मेघ को देखना…

गर्म रेत पे/भटके नंगे पाँव/अकेला दिन। 

नदी के बिना/समंदर कुँवारा/खाड़ी देश में। 

पके खजूर/महक दूर-दूर/दौड़ी चीटियाँ। 

     इस जीवन में सर्वत्र विसंगतियाँ ही विसंगतियाँ हैं यदि आपकी दृष्टि ही वैसी हो लेकिन ऐसा मानकर चुप भी बैठा नहीं रहा जा सकता। साहित्य को चाहिए कि वह समाज को आईना दिखाए इन हाइकु में आपने वही किया है-विद्या मंदिर की भब्यता देखकर माता शारदा का डरना जैसी टिप्पणी हमारी खोखली होती शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट है-

जब भी जली/राजनीति की भट्टी/भुनी जनता। 

पर्दे पे पर्दा/चेहरे पे चेहरा/सबको पता। 

राजा ने ओढ़ी/रेशम पे खद्दर/रँगा सियार। 

     चार दिन की इस ज़िन्दगी में शिकवा-शिकायत से हमें फुर्सत निकालकर इसे सँवारने में लगाना चाहिए क्योंकि ज़िन्दगी शतरंज की बाज़ी सी होती जा रही है इसमें हमें मोहरों की तरह चुनना होगा आँसू या मुस्कान। हमें अपना गिरेबाँ अपना मूल्यांकन और अपने व्यवहार कभी नहीं दिखते ऐसे ही भावों को मानवता बनाए रखने के लिए आप लिख रहे हैं-

एक अकेला/जोड़कर निन्नावे/बन जाता सौ। 

कब देखोगे/खुद का व्यवहार/मेरी दृष्टि से। 

कहते हैं जो/अपना नहीं कोई/वो किसके हैं। 

मेरी आपकी हाइकु लेखन की संभावनाओं को शुभकामनाएँ और इस संग्रह के लिए हार्दिक बधाई। 


रमेश कुमार सोनी

रायपुर, छत्तीसगढ़

मो.-7049355476

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ग़ाफ़ के साये में-हाइकु संग्रह, डॉ. नितीन उपाध्ये

सृजन बिम्ब प्रकाशन-नागपुर 2024

ISBN:978-93-91817-54-1

मूल्य-200/-₹, पृष्ठ- 128

भूमिका-डॉ. जगदीश व्योम एवं कमलेश भट्ट कमल

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