बोलने से सब होता है
बहुत बोलता है वह,
बोलते-बोलते उबल जाता है
अपना आपा खोकर
आगबबूला हो जाता है
उसे यह सब अच्छा लगता है
क्योंकि उसके अनुसार तो
यही उसका टोन है
उसे नहीं मालूम कि
कब, कहाँ उबलना है और क्यों
लोग उसे अब नज़रंदाज़ करते हैं।
दूसरा बिलकुल ही नहीं बोलता
ख़ामोशी आदत हो चुकी है
बर्फ़ की मानिंद ठंडा
उकसाने पर भी चुप
कहता है जाने दे ना जी
उसे भी नहीं पता कि
कब, कहाँ, कैसे और क्या बोलना है
लोग इसे भी नज़रंदाज़ करते हैं।
एक वो हैं जिनके
बोलने से फूल झरते हैं
लोग उसके बोलने की प्रतीक्षा में हैं
वह अमूमन सिर्फ इशारों में
ज़वाब देकर मुक्त हो जाती है
इसे भी बोलना नहीं आता कि
कब, कहाँ, कैसे और क्या बोलना है
लोग इसे भी नज़रंदाज़ करते हैं।
बोलना चाहिए गूँगे को भी
अन्याय और शोषण के विरुद्ध
चीखना चाहिए आसमान सिर उठाकर
ज़िगर के साथ, नज़र मिलाकर
सीना ठोंककर बोलें
पीठ पीछे तो कोई भी बोलता है।
बोलना सिर्फ विरोध में क्यों?
कभी प्रशंसा के बोल भी बोलें
इन दिनों कोई भी, कुछ भी
कहीं भी बोलकर चला जाता है और
लोग हैं कि लकीरें पीट रहे हैं
बोलना यानि आंदोलन और
चुप रहना यानि
मौन जुलूस कतई नहीं है।
बोलने के लिए साहस चाहिए
यह शक्ति हमें हमारा घर देती है
हमारी एकता देती है
कभी किसी से बोलकर तो देखिए
मेरे पिताजी कहते थे
ज़बान पर शहद लगाकर बोलो
कि पत्थर दिल भी मोम हो जाए
इन दिनों सही को सही और
ग़लत को ग़लत बोलने वाला ढूँढ रहा हूँ मैं।
.....
रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़
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