मेरी गुल्लक का वसीयतनामा
मेरा बचपन
गुल्लक में सिक्के बचाते ही बीत गया
इच्छा थी भविष्य खरीदूंगा!
अब बूढ़ा हो गया हूँ
इसी गुल्लक से अपनी यादों को
एक-एक करके खर्च कर रहा हूँ
ताकि कुछ और भविष्य के
सुनहरे वक्त खरीद लूँ।
गुल्लक कहीं भी रहे
उसकी धमक सदैव ज़िन्दा रहती है
यह सेठों के यहाँ तिजौरी बन जाती है,
अफसरों के पेट बन जाती है,
गृहणी के बटुए में खुश हो जाती है और
हम जैसे बच्चों को
अपनी खनखनाहट से खुश कर देती है।
मेरी यही गुल्लक अब
मेरी पुरानी स्कूली पेटी में तालाबंद है
इस किस्से के साथ कि-
इसमें करोड़ों की वसीयत है!
लोग इन दिनों
मेरा फेरा लगा रहे हैं;
बस सेवा और इज्जत मिल रही है,
दो रोटी का सहारा है यह,
इन दिनों मैं
वक्त को बाँचने में लगा हूँ।
काश कि इस खुली किताब को
कोई मुफ़्त ही सही पढ़ तो लेता;
गुल्लक का वसीयतनामा
नई पीढ़ी को बहुत महँगा पड़ेगा।
मेरे जाने के बाद
मेरे इसी गुल्लक से निकलेंगे-
मेरी आँसुओं की लाशें,
मेरी गुमशुदा दर्द की बारातें और
मेरे भोगे हुए संघर्ष की आँधियाँ;
शायद ही कोई महसूस कर सकेगा
इसके किसी कोने में साँसें लेती हुई-
मेरी छुअन और वक्त की रेशमी यादों को
किसी कलावे की तरह पवित्र।
…..
रमेश कुमार सोनी
रायपुर,छत्तीसगढ़
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