विश्व पर्यावरण दिवस-कविता 2


अलार्म बज रहा है 


इतना पानी दिन भर में पीना है

इतनी साँसे गिनकर लेनी है

इतने समय तक काम करना है

इतने समय व्यायाम करना है 

इतने समय में सोना-जागना है 

इतना डाटा उपयोग करना है 

इतना ही हँसना-बोलना है; 


इतने ही पैसों में जिंदा रहना है

इतना ही खाना,खाना है 

दवाईयाँ तो तय समय पर लेना ही है 

सब कुछ तय होता है-शहरों में।

बहारों को प्रवेश से पहले ही 

शहर के नियम पता हैं


देखो वसंत भी 

गमलों में कनबुच्ची करते बैठा है

हवाएँ, अपनी मर्जी से 

यहाँ-वहाँ घूम नहीं सकतीं

नदियाँ बेशोर निकल लेती हैं 

अतिथियों का प्रवेश निषेध है ही। 


जब सब कुछ तय है इनका यहाँ पर 

फिर यहाँ के लोग 

मरने से डरते क्यों हैं? 

क्या बचा रह गया है शहर में इनका? 

डॉक्टर ने पहले ही चेता दिया है कि-

तुम्हारा कोटा पूरा हो चुका है!


नमक,शक्कर,तेल-घी, मसाला सब बंद।

आखिरकार एक दिन 

शहर ने सुना ही दिया-

इनकी सेवा-सुश्रुषा करो

आब-ओ-हवा बदल दो 

दुआएँ करो…


अब ये प्लास्टिक के पहाड़ जैसे लोग 

गाँव में अपना घर ढूँढ रहे हैं-

नदी किनारे,जंगल के पास 

शहर जैसा घर

अलार्म बज रहा है…

श श श कोई जा रहा है….। 

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रमेश कुमार सोनी

रायपुर, छत्तीसगढ़




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