वैविध्यता की अंतर्धारा
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. रामनिवास 'मानव' का यह दूसरा हाइकु-संग्रह है, इस संग्रह में विविध विषयों के तहत 366 हाइकु संगृहित हैं जिनमें तुकबंदी को अच्छे से निभाया गया है। ये हाइकु सन 2005 से 2011 के बीच रचे हुए हाइकु का संग्रह है। हाइकु एक लघु काव्य, जापानी विधा है जिसका भारतीयकरण हुआ है। इसके अनेक संग्रह अब प्रकाशित हो रहे हैं। हाइकु-5,7,5 यानि 17 वर्ण की तीन पंक्तियों में शब्दांकित होती है, इसकी अनिवार्य शर्त है-इसमें काव्य के सभी तत्व विद्यमान होने चाहिए। हाइकु का असली आनंद तो पाठक को तब आता है जब उसके समक्ष कम से कम शब्दों में रची गयी यह कविता खुलती है और उसके मन-मष्तिष्क में रच-बस जाती है।
यह संग्रह आपकी दृश्यानुभूति का अनूठा संग्रह है जिसमें आपने हाइकु के शिल्प विन्यास का बखूबी पालन किया है। आपके इस संग्रह में विषय वैविध्य के साथ लोक चेतना के नवीन बिम्ब उपस्थित हैं। इस संग्रह के हाइकु समसामयिक जीवन मे व्याप्त विसंगतियों के प्रखर विरोधी हैं। आपके हाइकु स्पष्टतः प्रकट हो रहे हैं कि-इस जीवन को सुख-दुःख और सच-झूठ का हिंडोला झुलाते रहता है क्योंकि इच्छाएँ अनंत और नंगी हैं-
देखे जो छवि/जड़ में चेतन की/वही तो कवि।
रंग बिरंगी/तितलियाँ मन में/ इच्छाएँ नंगी।
सुख-दुःख हैं/केवल पर्यटक/ आए थे गए।
सच अकेला/पर झूठ के घर/ लगा है मेला।
हाथ में गीता/ नाप रहे सच को/झूठ का फीता।
हमारा यह चार दिन का जीवन क्षणभंगुर है जिसके द्वारा हमें परमात्मा से एकाकार का मौका मिलता है। यह जीवन दर्शन सिर्फ मानव जीवन को अनमोल भेंट के रुप मे प्राप्त है। हम सभी इस जगत में खाली हाथ अकेले आते हैं और खाली हाथ अकेले ही लौट जाते हैं। अभिमान और अहंकार इसके दीमक हैं जो इसे चाट जाते हैं, आइए इन हाइकु के द्वारा इस जीवन को प्रभु के लिए सँवारें -
मानव देह/मिट्टी का खिलौना/बालू का गेह।
शून्य से गुणा/जीवन भर किया/ शून्य ही रहा।
मौन है काया/उड़ गया पखेरू/रोती है माया।
आपने नीतियों को भी हाइकु में पिरोया है यह एक नव प्रयोग है जिसमें काव्य चेतना उपस्थित है। ये हाइकु हमारे जीवन की विविध घटनाओं में लक्ष्मण रेखा खींचते हुए प्रकट हुए हैं-
फूल जो बाँटे/मिलते हैं जग में/उसी को काँटे।
कसे जो तार/ सधी मन की वीणा/फूटी झंकार।
लक्ष्मण- रेखा/ यहाँ जिसने लाँघी/दुर्दिन देखा।
सामाजिकता हम सबके लिए अनिवार्य है यद्यपि सबको अकेले ही आना-जाना है तथापि जीवन जीने के लिए घर, परिवार, समाज और रिश्तों की अहमियत ज्यादा है। ये और बातें हैं कि हममें से कितनों ने रिश्ते और सामाजिकता निभायी है। समाज के प्रगाढ़ सबंध एक तरफा नहीं निभते बल्कि चुभते हैं क्योंकि इस पर स्वार्थ का बेताल हावी होता है। इन हाइकु में आपने मानवीय जीवन मूल्यों का मार्मिक चित्रण किया है-
सब व्यापार/कोई थोक- विक्रेता/कोई पंसारी।
कंधों पे हावी/प्रगति का बेताल/स्वार्थ प्रभावी।
जीवन भर/हम ढूँढते रहे/घर में घर।
स्वार्थ का फीता/ नापता है लंबाई/अब रिश्तों की।
कभी सिंदूर/मिले यहाँ नारी को/कभी तंदूर।
वर्तमान दृश्य में किसान कहीं गुम सा हो गया है, ना तो उसके मुद्दे दिखते हैं और ना ही उसकी कल्याणकारी योजनाएँ। हम सबके अन्नदाता के इस बुरे वक्त को समाज और देश के समक्ष उठाने के लिए आज आपने हाइकु को अपना माध्यम चुना है यह साधुवाद के लायक है। आपके ये हाइकु बहुत कुछ संदेश लिए उपस्थित हुए हैं-व्यस्था के विरोध में।
जो अन्नदाता/भूखा क्यों आज वही/बोलो विधाता।
तमाशा जारी/ कोई यहाँ बंदर/कोई मदारी।
बंदर-बिल्ली/चाट रहे मलाई/ चुप है दिल्ली।
बाप तो शाह/बेटे शहजादे हैं/ शेष प्यादे हैं।
आपके हाइकु में प्रकृति के दृश्यों की स्फूर्ति है तथा नैसर्गिकता प्रतिध्वनित होती है। यूँ तो प्रकृति पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है फिर भी लिखने को अनंत सा बाकी है। आपके इन हाइकु का मानवीयकरण किया है जिनमें धरा का आँचल मोतियों से जड़ा हरा है, वृक्ष अपना रुप सँवारने ताल में निहार रहे हैं और ग्रीष्म के पेड़ तपस्वी से हैं। आइए इन हाइकु के द्वारा हम अपने परिवेश में इन्हें तलाशें-
लेटी है धरा/पहन मोती-जड़ा/ आँचल हरा।
ताल दर्पण/झुक वृक्ष निहारे/ रुप सँवारे।
ग्रीष्म में पेड़/खड़े मन उदास/ जैसे तपस्वी।
निकला दिन/दूध नहाई धूप/ निखरा रुप।
पात जो झरे/होंगे पुनः सपने/ वृक्ष के हरे।
दूसरों या अन्य विषयों पर तो बहुतेरे कलम चलते हैं परंतु जो स्वयं पर लिख ले उसे उत्कृष्ट माना जाता है। इन हाइकु में आपने जीवन की वास्तविकता को प्रकट किया है कि आप जैसा करेंगे वैसा ही भरेंगें-
दोनों ही हँसे/लोग तो मुझ पर/मैं लोगों पर।
किस्त चुकाते/ चूक गया जीवन/चुके न खाते।
आपके इस हाइकु-संग्रह में नवीन भावों और अनुभूतियों का अनूठा शब्दांकन है जिनका रचना फलक विस्तृत है। इन हाइकु में प्रयोगवाद की महक है जो नव हाइकुकारों को एक नयी दिशा देने में सक्षम है। इस संग्रह के हाइकु लोकजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, अन्याय,अराजकता जैसे विषयों से तटस्थ न रहते हुए अपना विरोध दर्ज कराने में सक्षम हैं। आपके जीवन के सघन अनुभव इन शब्दों में बोलते हुए प्रकट हुए हैं, ये हाइकु हममें आशावाद का संचार कर रहे हैं-
कितना कहें/और किससे कहें/कितना सहें।
काँटों में फँसा/फूल धूप में तपा/फिर भी हँसा।
'मेहंदी रचे हाथ' हाइकु-संग्रह के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं आशा है कि पाठकों को यह अवश्य पसंद आएगी। इस पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह के लिए मेरी अशेष शुभकामनाएँ।
रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़
…..
मेहंदी रचे हाथ (हाइकु-संग्रह)-
डॉ. रामनिवास 'मानव'
अक्षरधाम प्रकाशन-कैथल (हरियाणा)-
2012 , मूल्य-₹150,पृष्ठ-80,
ISBN:978-93-82341-83-3
भूमिका-डॉ.कमल किशोर गोयनका-नई दिल्ली, फ्लैप-डॉ. सुरेश उजाला- लखनऊ एवं डॉ. सुभाष रस्तोगी-चंडीगढ़, उपसंहार-डॉ. मिथिलेश दीक्षित
......
No comments:
Post a Comment