अनुभूतियों की लहरों से मचलता हुआ मन-

            हिन्दी साहित्य में अब हाइकु का नभ विस्तृत हो चुका है इसने देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपनी एक अनोखी दुनिया बनाई है जिसके पाठकों के समयदान और लेखकों के अकूत श्रम ने हिंदी कविता को सशक्त बनाया है। वर्तमान में हाइकु विधा की अनेक पुस्तकें (विविध बोली-भाषाओं में भी),शोध कार्य, समीक्षा,पत्रिकाओं के विशेषांक और हाइकु कोश...जैसे कई साहित्य प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों हाइकु पर परिचर्चा-गोष्ठियाँ,कार्यशालाओं के आयोजन के साथ ही इस पर विविध प्रयोग जारी है।  हिंदी हाइकु का डिजिटल प्लेटफार्म इसका प्रमुख विस्तारक एवं मार्गदर्शक है जिसके संपादक द्वय- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु एवं हरदीप कौर संधु हैं। इन दिनों हाइकुकारों के रचनात्मक अवदान पर विशद विमर्श एवं शोध की आवश्यकता है

        लहरों के मन में- सुदर्शन रत्नाकर का तीसरा हाइकु संग्रह है  इसमें  कुल 763 हाइकु  इन उपशीर्षकों के अंतर्गत हैं-1 प्रकृति के संग, 2 रिश्तों के रुप, 3 विविध रंग।  आपके इन हाइकु में विशिष्टता का आकर्षण और काव्य की अद्भुत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं जिसमें परिपक्वता है। प्रकृति की पंच महाभूत शक्तियों में से एक है -जल।  समुद्र में संसाधनों का अकूत भंडार है।  यह हमें प्रकृति को पास से देखने /निहारने का न्यौता देता है सबकी अपनी-अपनी दृष्टि होती है लेकिन साहित्यकारों के पास उस अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की विविध विधाएँ भी प्रचलित हैं हिंदी हाइकु इन सबसे जुदा है क्योंकि इसकी लघुता में इसकी विशालता और व्यापकता के दर्शन होते हैं।   

     हिंदी हाइकु ने प्रकृति के संग ठुमकते हुए चलना सीखा है इसलिए हाइकु में प्रकृति मुख्य रुप से विद्यमान रहती है। प्रकृति के अनेकों रुप हैं जिन्हें जो अनुभूत हो जाता है वही दृश्य रचनात्मकता की ऊँगली थामे, हाइकु का चोला पहने साहित्य की पंगत में बैठ जाता है। आइए इन हाइकु में भोर के सौन्दर्य को निहारें जो कभी झाँझर झनकाती नवेली दुल्हन है तो कभी ये रश्मि रथ पर सवार होकर आते हैं और ओस की मोतियों से कोहरे की चादर बुनते हैं-

भोर नवेली/पहन के निकली/साड़ी उजली।

प्राची दिशा से/झाँझर छनकाती/उषा निकली।

उतरीं नीचे/रथ पर सवार/रवि रश्मियाँ।

ओस के मोती/कोहरे की चादर/गढ़े चितेरा।  

     रात के दृश्यों को मन के कैमरे में कुछ इस तरह कैद किया है की साहित्य यहाँ हाइकु रूपी तारों से अलंकृत सा लगता है। रात का सौन्दर्य चाँद और चाँदनी के बिना अधूरा है और इसे अनुभूत कर इस तरह प्रकट करना पाठकों को आकर्षित करता है-

दूध कटोरा/हाथ लिए घूमती/रात चाँदनी।

पूस की रात/कोई नहीं बाहर/चाँद अकेला।

तारों के गुच्छे/झूमर ज्यों लटके/नील नभ में।

     वर्षा,बाढ़,नदी के दृश्यों को लोकमंगल की भावना से रचनात्मकता को शब्द देने हाइकु का लिबास बखूबी पहनाया है इस हाइकुकार ने; इससे रचना की सार्थकता सिद्ध होती है। इसे पढ़ते हुए कभी मन भीग जाता है तो कभी काँपने लगता है कभी यह नदी किनारे मंत्रोच्चारण भी सुनने लगता है-

वर्षा की बूँदें/बालकनी में बैठ/भीगते मन।

बाढ़ का पानी/लील जाता जिंदगी/काँपता मन।

मंत्रोच्चारण/गूँजे नदी किनारे/हैं धरोहर।

      धूप के कुछ अनोखे रंग इन हाइकु में यहाँ बिखरे पड़े हैं जिन्हें पाठकों तक पहुँचाने का बीड़ा हाइकुकार ने बखूबी उठाया है। नाजुक धूप,पीले धूप और चाँदी जैसी धूप को यहाँ हाइकु ने कुछ तरह से शब्दांकित किया है-

लाल पलाश/पीले अमलताश/धूप में पगे।

नाजुक धूप/सर्दी के मौसम में/शर्माती आए।

उतरी धूप/आज मेरे अँगना/चाँदी बिखरी।

      शीत महारानी के विविध रुप यहाँ देखने को मिलेंगे जो आपको अपने आपसे सीधे ही जोड़ते हैं और ले चलते हैं हिम पर्वतों की मौन साधना से अहल्या सी प्रतीक्षारत झील की यात्रा पर वाकई ये हाइकु का ही रंग है जो हम पाठकों तक शीत भेजने में समर्थ हुई है- 

बिन श्रृंगार/अलसाई सी उतरी/धूप सर्दी की।

हिमाच्छादित/मौन खड़े पर्वत/ज्यों तप लीन।

बर्फ है जमी/अहल्या-सी हो गई/सर्दी में झील।

      पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन की महती जिम्मेदारी कहीं न कहीं हम सबकी है। हमने इसे अपनी व्यस्तताओं के पीछे छुपा रखा है लेकिन वक्त पर मौसम की बेरुखी उजागर हो ही जाते हैं, ये हाइकु इसी भाव को व्यक्त कर रहे हैं- 

हमने ही तो/काटे हैं बरगद/धूप क्या करे।

उड़े जो पंछी/कर रहा प्रतीक्षा/ठूँठ अकेला।

      मानवता की जीवन्तता का मूल रिश्तों में अन्तर्निहित है। इन रिश्तों में माँ मुख्य धुरी होती है जिसके इर्दगिर्द सभी रिश्तों का तानाबाना जुड़ा होता है। बेटियों को जहाँ दो परिवार का साथ मिलता है, वहीं पिता रिश्तों में बरगद की छाँव से हैं और प्रियतम की सात जनम के साथ जुड़े रिश्ते खुशियों की गुल्लक के जैसे हैं। रिश्तों में विश्वास और समर्पण की चाशनी होती है जिसे ये हाइकु यहाँ प्रकट कर रहे हैं-

सहला गया/झोंका ठंडी हवा का/ज्यों स्पर्श माँ का।

मेरे अँगना/चहकती चिड़िया/मेरी बिटिया।

पिता का साथ/खुशियों की गुल्लक/टूटी बिखरी।

प्रिय का संग/डोर बँधी पतंग/उड़ती जाए।

      इन दिनों रिश्तों को सँभालने का युग है क्योंकि एकल परिवारों की बढ़ती चाहत ने कई रिश्तों को लुप्त किया है।  महानगरीय और पाश्चात्य की जीवनशैली ने हमारे समाज के साथ-साथ हमारे घरेलू रिश्तों को भी खोखला किया है।  रिश्तों में जहाँ समर्पण होना चाहिए वहाँ अवसरों पर बदला  भुनाने,नीचा दिखाने जैसी ओछी और छोटी सोच जाने कहाँ से प्रवेश कर गई है।  अपेक्षाओं से उपजी उपेक्षा के दंश से रिश्तों में पड़ती गाँठें असहनीय पीड़ा देती हैं-

रिश्तों का बोझ/पड़ने लगा भारी/दुनिया न्यारी।

सिमट गए/हैं,नाते-रिश्ते सारे/मोबाइल में।

       स्मृतियाँ अपने भूतकाल की धरोहर होती हैं जिनके सहारे हम वर्तमान की सीढ़ी चढ़ते हैं, इनमें बाल्यकाल की यादों को युवावस्था जब प्रेम का चोला पहनाता है तब यह जीवन को वास्तव में जिंदगी देता है। यहाँ हाइकुकार के मन में बसी स्मृतियों की पोटली को बिखेरूँ कहाँ का असमंजस है लेकिन साहित्य का चमत्कार इसे गूँथता है किसी जीवंत गुलदस्ते के जैसे-

स्वप्न हो गई/रहट की आवाज़/मुर्गे की बाँग।

कीकली खेल/चरखे की घूमर/पीछे हैं छूटे।

तीज त्यौहार/सबके साँझे होते/गाँव के मेले।

धुआँसी आँखें/माँ परोसती रोटी/मिट्टी के चूल्हे।

       इस जीवन के कई रंग हैं जो वक्त के पहिए पर सवार होकर दुःख और सुख के गाँव की यात्रा पर जाते हैं जहाँ हमें बरबस ही दिख जाता है-बालश्रम, भूख, वृद्धाश्रम, अट्टालिकाओं सा घोंसला, मोबाइल की माया के साथ अपने आपको सबकुछ समझने की बड़ी भूल करते इंसानी कठपुतलियों को साधते इस जगत मदारी को रेखांकित करता यह हाइकु देखिए-

दिखाता वह/देख रही दुनिया/खेल मदारी।

कंचन काया/झूठी जग की माया/क्यों भरमाया।

     फूटपाथ,लूट,झूठ,भूख, विकास से विनाश जैसे विषय अब हाइकु की जद में आने लगे हैं आधुनिकता और बाजारीकरण के इस युग को आईना दिखाते हुए ये हाइकु पुष्ट हैं-

अजनबी से/रह रहे हैं लोग/ऊँचे मकान।

बाँधती रही/जीवनभर घड़ी/बँधा न वक्त।

क्षत-विक्षत/नगर की है काया/लोग हैं शांत।

सूनी गलियाँ/पहरे पर चोर/जागते रहो।

     आधुनिक दुनिया के तथाकथित संचालनकर्ता राजनीति की लपलपाती जीभ जब सम्पूर्ण मानवता को निगलने को तैयार हो ऐसे समय में आश्वासन की झूठी परंपरा को पोषित करते कुछ सफेदपोश जो इस लोकतंत्र के लिए जब भस्मासुर साबित होने को हों तब हाइकु इसे अपने आगोश में समेटकर कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करता है-

खोखले नारे/सूखे पत्तों का शोर/चरमराते।

टूटता मन/देख राजनीति की/वैश्या प्रवृत्ति।

     मज़बूरियाँ, इस जीवन का एक पड़ाव हैं जहाँ वक्त का आपातकाल लगा रहता है ऐसे दुर्घर्ष दृश्यों के प्रकटीकरण में हाइकु पीछे नहीं है- 

सजा रखी है/सीने पर दुकान/पेट के लिए।

     ‘लहरों के मन में’- एक पठनीय और संग्रहणीय हाइकु संग्रह है जो नव हाइकुकारों को भी मार्गदर्शन करेगा।  हिंदी साहित्य को आपने अपने इस योगदान से कृतार्थ किया है। इस कृति में आपके अंतस की कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का गुंजायमान है जो हाइकु विधा को पुष्ट कर रहा है।

इस अद्भुत् संग्रह के लिए ‘सुदर्शन रत्नाकर’ जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।

रमेश कुमार सोनी ,रायपुर 

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लहरों के मन में-हाइकु संग्रह, सुदर्शन रत्नाकर

अयन प्रकाशन-दिल्ली,सन- 2022, मूल्य-360/- पृष्ठ-144

ISBN:978-93-94221-27-7, कवर पेज-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु

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