संवेदनाओं
की महक का सुंदर शब्दांकन
इस संग्रह में वर्णित- डॉ.भगवतशरण अग्रवाल के
अनुसार आपके प्रकृति सम्बन्धी हाइकु में संवेदना तथा चित्रात्मकता का सुन्दर
समन्वय हुआ है। कमलेश भट्ट कमल के अनुसार आपके हाइकु समकालीन हिंदी कविता का सम्यक
प्रतिनिधित्व करता है। राजेन्द्र वर्मा जी की चिंता यह है कि आजकल के हाइकु में दृश्य
की अपेक्षा कथन ज्यादा दिखता है, हाइकु में कविता की कमी के चलते
संवेदनाओं का अभाव ठीक नहीं। राजेन्द्र वर्मा की ‘सोंधी महक’
हाइकु संग्रह में प्रकृति-पर्यावरण,परिवार-समाज,सत्ता-व्यवस्था, आत्मालाप एवं बूँद-बूँद बादल से खंड के अंतर्गत
कुल 405 हाइकु
समाहित हैं। यह आपका द्वितीय हाइकु संग्रह है,आपके प्रथम
हाइकु संग्रह को भी मुझे बाँचने का अवसर मिला था। आपने ‘अविरल मंथन’ पत्रिका के हाइकु विशेषांक का
संपादन भी किया है।
हिंदी हाइकु इन दिनों अपने विविध
संग्रहों और सोशल मीडिया के चलते विश्वाकाश में इठला रही है; बतौर समीक्षक मुझे यह
कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि इसकी गुणवत्ता में कहीं गिरावट आ रही है तो कहीं
उत्कृष्टता के दर्शन भी होते हैं। इन सबके पीछे का मुख्य कारण है-स्वाध्याय की कमी
और देखा-देखी में संग्रह निकालने की शीघ्रता। हाइकु एक पूर्ण कविता है यह 17 वर्ण
में महज़ तीन पंक्ति की ढाँचा मात्र रचना नहीं है वरन इसमें कविता के सभी गुण
विद्यमान होने चाहिए। हाइकु में वर्णित दृश्य पाठकों के सम्मुख खुलना भी आवश्यक
है; इसे दस्तावेजी लेखन से भी बचाना हम सभी का गुरुत्तर दायित्व है।
‘सोंधी महक’ संग्रह
मुझे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ इसके द्वारा मैंने आपके एक लम्बे हाइकु जीवन की
रचना यात्रा को अनुभूत किया। यह संग्रह सर्वथा नए अनूठे बिम्बों की शृंखला का नूतन
उदाहरण है तथा इसमें शब्दांकित गहन इन्द्रियबोध दुर्लभ है। इस संग्रह के केन्द्रीय
भाव में नवीन अनुभूतियों वाले बिम्ब हैं जिनका प्रतीकों के साथ सुन्दरता से समन्वय
हुआ है। इस,कविता से परिपूर्ण हाइकु वाले संग्रह का साहित्य जगत में स्वागत किया
जाना चाहिए। इसके प्रथम खंड में प्रकृति-पर्यावरण है जिसे पढ़ते हुए हम अपने
आपको प्रकृति से अनायास ही जोड़ लेते हैं और अपने परिवेश की समझ जागृत होती है।
इसमें धूप किरणों का मचिया पर भोर में बैठना, दूब नटनी का अपने शीश पर
ओस बूँद संभालने के साथ वर्षा का बंज़र धरा पर केश उगाना जैसे कई बिम्ब प्रस्तुत
हुए हैं-
कपाट
खुले/रवि-रश्मियाँ बैठीं/मचिया पर।
दूब
नटनी/शीश पर सँभाले/ओस की बूँद।
काँधे पे
सूर्य/दिहाड़ी मज़दूर/खड़ा अड्डे पे।
घुटे सिर पे/उगने
लगे केश-/गिरि पे घास।
अंकुर
फूटा/धूप लायी कलेवा/दुलारे हवा।
हवा की
पेंग/झूल रही हिंडोला/बया की झोंझ।
इस संग्रह के द्वितीय भाग परिवार-समाज के
अंतर्गत हमें अपने वर्तमान समय की विसंगतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती है,
इस खंड में आपने इन समस्याओं को उकेरकर समाज को वाकई में साहित्य का आईना दिखाया
है। इन हाइकु के साथ हम अपनी इन ज्वलंत समस्याओं/दृश्यों को आसानी से जोड़कर देख
सकते हैं-बेरोजगारी,बाल मज़दूरी,नशे का
असर,बेटी की चिंता,करवा चौथ,वृद्धाश्रम, भूख, लौंडा नाच,ट्रेक्टर
आया, आँगन बँटा एवं पुस्तक मेलों के चोंचले। इस खंड के ये
हाइकु अपनी विशिष्ट छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं जिनका उल्लेख किया जाना तो बनता
ही है-
आर्ट की
कॉपी/फूल के चित्र पर/बैठी तितली।
इंटरवल/बातों
के भी टिफ़िन/लगे खुलने।
दूध उबला/
‘तू-तू मैं-मैं’ हो रही/सास-बहू
में।
गुस्से की
मार/वज्र बनके गिरा/ ‘तीन तलाक’।
हाय री
भूख/अपना ही खून बिका/रोटी के लिए।
खंड तीन में सत्ता-व्यवस्था
विषयक हाइकु संग्रहित हैं जो लोकतंत्र की खामियों के आसपास भ्रमण करते हुए दिखी। यदि
किसी साहित्यकार को अपने आसपास इन विषयों पर संवेदनाओं की अनुभूति हो रही है (जैसा
यहाँ वर्णित है) तो हम सभी को ज्यादा सचेत रहने की आवश्यकता है; वैसे भी इन वर्णित
हाइकु के दृश्य स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आइए इन विषयों को इन हाइकु के
माध्यम से महसूस करें कि कैसे धूम मचाते आता
है जंगल राज, नकली नोटों पे भी हँसते रहे गाँधी जी, कैसे ट्रैफिक
में पहले निकलता है सफ़ेद हाथी, ज़ाहिल टी.वी. पर नोंक-झोंक, सत्ता
के जोंक का मोटा होना, खाप पंचायतों के निर्मम फ़ैसले, बलात्कार पर ख़ामोश समाज, बिकाऊ शिक्षा,ध्वनि प्रदूषण एवं....किसानों का दर्द।
वोटर
स्तब्ध!/गले मिलने लगे/साँप-नेवले।
चुनाव
आया/फिर चढ़ने लगी/काठ की हांडी।
हाँ,अँधेरा
हूँ,/बैठा हूँ दीप तले/क्या कर लोगे?
आत्मालाप, खंड चार के अंतर्गत वर्णित हैं-चार
दिन की ज़िंदगी की यात्रा के पड़ाव, स्मृतियों के आईने में, जिंदगी की हक़ीकत, कर्म का लेखा-जोखा, क्या
खोया-क्या पाया? और एक वियोगी मन। हम सभी जानते हैं कि कस्तूरी मृग जिस प्रकार
अपनी सुगंध से अनजान दुनिया में उसे खोजती फिरती है ठीक इसी तरह हम भी कभी अपने
भीतर कहाँ झाँककर देखते हैं? वृद्धावस्था सब याद दिला देती
है कि क्या सोचकर जीवन की राह पर चले थे और कहाँ पहुँचे हैं?
ऐसा ही कुछ भाव लिए ये खंड आपको, अपने साथ जोड़ने में सक्षम हैं।
जीवनदौड़/नृत्य
करता लट्टू/हथेली पर।
हाय
बुढ़ापा!/चिकने गाल हुए/भुने आलू से।
तुम क्या
आए/खुल ही गयी जैसे/इत्र की शीशी।
अंतिम खंड, बूँद-बूँद
बादल
के अंतर्गत आपके प्रथम हाइकु संग्रह के हाइकु संग्रहित हैं इनके केंद्र में
प्रकृति के साथ-साथ लोकजीवन के दृश्य शब्दांकित हैं। खिले कमल को ग़ज़ल कहना,सूखे
पत्तों का गुस्सा होना,क्या मन ब्याह पाओगे?, इर्ष्या कब राख करेगी कोई भी नहीं जानता और समय की चक्की कब उम्र पीस
देती है पता ही नहीं चलता ऐसा कुछ लिख पाना आपकी साहित्यिक प्रतिभा की देन है।
वैसे यह खंड आपके इस प्रथम संग्रह को पुनः पूरा पढ़ने की उत्सुकता जगाता है फिलहाल
हमें इन हाइकु के द्वारा थोड़े को ज्यादा लिखा समझाना होगा।
खिला
कमल/जल पर उतरी/जैसे ग़ज़ल!
रोष
जताते/सूखे पत्ते भी जब/कुचले जाते।
स्टोव
फटता/एक बहू को छोड़/कौन जलता?
कब
बदला/मैं ईर्ष्या से राख में/पता न चला!
‘सोंधी महक’ हिंदी
हाइकु का एक उत्कृष्ट संग्रह है जिसमें नवलेखकों के लिए पर्याप्त मार्गदर्शन है
साथ ही यह संग्रह प्रतीक्षा करते हुए, धैर्य से अच्छे हाइकु ही प्रकाशित हों इसका
भी एक उदाहरण है। इस हाइकु संग्रह के भाव एवं कला पक्ष प्रबल हैं साथ ही सरल भाषा
में इसके हाइकु अपने दृश्यों के साथ आसानी से पाठक को अपनी दुनिया में खींचकर ले
जाते हैं। इस संग्रह के कुछ हाइकु तो ऐसे हैं जिन्हें लिखने को साहस चाहिए लेकिन
जो कुछ भी हमें दिख रहा है उसे निगला भी तो नहीं जा सकता। इसके विषयवस्तु समसामयिक
एवं प्रासंगिक हैं जो इस लोकजीवन को पूरा समेटने में सक्षम हैं, यह संग्रह आपके
सृजन शक्ति को परिभाषित करती है जो आपकी सूक्ष्म अनुभूतियों से होकर निकलती है।
एक
उम्दा हाइकु संग्रह की आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
कबीर
नगर-रायपुर, छत्तीसगढ़
मो.
9424220209
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सोंधी
महक-हाइकु संग्रह, राजेन्द्र वर्मा
प्रकाशक-बोधि
प्रकाशन जयपुर, मूल्य-120/-, पृष्ठ- 96
ISBN: 978-93-5536-034-2
अभिमत- डॉ. भगतशरण
अग्रवाल, कमलेश भट्ट कमल
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