हिंदी ताँका का सदाबहार वन्दनवार

हिंदी ताँका का सदाबहार वन्दनवार

          हिंदी ताँका को उतनी लोकप्रियता नहीं मिल पायी जितनी की हाइकु विधा को मिली है इसलिए भी इसके संग्रह बहुत कम हैं। ताँका जो एक जापानी साहित्य लेखन की विधा है को हिंदी साहित्य में अतुकांत लघुगीत के रूप में मान्यता दी गयी है। इसमें पाँच पंक्तियों में क्रमशः 5,7,5,7,7 यानि कुल 31 वर्ण होते हैं, इसका प्रथम भाग हाइकु होता है और दूसरा हिस्सा इसका विस्तार है। इसकी पूरी रचना प्रक्रिया इस संग्रह की भूमिका में तथा आत्मकथ्य में उल्लिखित है; डॉ. दीक्षित के अनुसार-‘ताँका में किसी व्यक्ति, दृश्य या भाव का अंकन होता है। अतः रचनाकार की दृष्टि में वह सामर्थ्य होना चाहिए कि वह दृश्य और दिशा दोनों को व्यंजित कर सके, तभी सृष्टि,सम्प्रेषण और प्रभाव की स्थिति आती है

         ताँका विधा भारत में कोई एक दशक पूर्व से लोकप्रियता को प्राप्त करने में हाइकु के साथ लगी हुई है तथापि सोशल मीडिया में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु द्वारा संचालित- ‘त्रिवेणी ब्लॉग ने पर्याप्त प्रशंसा पाई है।  इसके कई एकल और साझा संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं लेकिन ताँका का एकमात्र इ पुस्तक ‘झूला झूले फुलवा-2020 तथा स्थानीय बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी में विश्व का प्रथम ताँका संग्रह ‘हरियर मड़वा-2019 का विशेष उल्लेख करना चाहूँगा यद्यपि ये दोनों ही संग्रह मेरे ही हैं। अभी तक किसी पत्रिका ने ताँका विशेषांक निकाले हों ये मेरी जानकारी में नहीं है; इस पर काम करते हुए इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है।

          राजेन्द्र वर्मा जी का ताँका संग्रह ‘वन्दनवार’ मुझे पढ़ने को मिला जो अपने आपमें परिपूर्ण है इसलिए इसे मैंने सदाबहार वन्दनवार कहा है। इस संग्रह में  कुल 210 ताँका इन उपखंडों-प्रकृति-पर्यावरण, समाज, सत्ता-व्यवस्था, एवं आत्म-संवाद के तहत वर्णित हैं। इस संग्रह में कथ्य और शिल्प कला के सुन्दर दृश्य देखने को मिलते हैं, अपनी अनुभूतियों को आपने अच्छी तरह से बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है जिससे यह पाठकों तक सुगमता से पहुँच रहा है। इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसके सौन्दर्य अपनी सकारात्मकता के साथ गुम्फित हैं आपकी यह शैली वरिष्ठ ताँकाकारों -डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ.उर्मिला अग्रवाल, रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. मिथिलेश दीक्षित एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु  से प्रभावित है।

          इस ‘प्रकृति-पर्यावरण’ खंड के अंतर्गत इन दृश्यों पर विशेष ध्यानाकर्षण चाहूँगा क्योंकि ऐसा शब्दांकन कभी-कभी ही देखने को मिलते हैं, ये दृश्य हैं-मेघों के छलक पड़े नैन, गिर पड़ा दौंगड़ा, बरखा की पालकी, गजगामिनी नदी, चुगलखोरनी हवा,एवं जाड़े में मुँडेर पर टहल रही धूप। इनके अतिरिक्त इस खंड में अपनी प्रकृति को सँवारने और उसके सौन्दर्य का इन दृश्यों में भी प्रकटीकरण है-सुहानी भोर, समुद्र, मेघ, हरसिंगार,आम्र बौर,मधुमक्खी, गुलाब और वसंत। इन ताँका में शब्दों की एक अनोखी ताजगी पाठक अवश्य महसूस करेंगे-    

दूब नटनी/शीश पर सँभाले/ओस की बूँद/मचल उठी हवा/बिखर गया मोती।

कब बीतेंगे/लपट केए दिन?/छायेंगे मेघ/पहनेगी धरती/बूँदों की पैजनिया।

बदली छायी/भर लायी गागर/पनिहारिन/हवा बाँटने लगी/बरखा की पातियाँ।

किसने छापे/धरती के पृष्ठों पे/ ताँके ही ताँके/पढ़ने बैठी ऋतु/पृष्ठ पलते हवा।

महकता था/बागीचे में गुलाब/कि बढ़ा हाथ/बन गयी दुश्मन/अपनी ही ख़ुशबू।

    इन ताँका में एक चेतावनी है, सबक है। यहाँ ताँकाकार वर्तमानी पीढ़ी को आईना दिखाते हुए मुखर हुए हैं कि पर्यावरण की अनदेखी का नतीजा भुगतने के लिए समस्त मानवता को तैयार रहना होगा जिसे बीते वर्षों में हमने स्वयं भोगा है कि किस प्रकार त्राहिमाम मचा हुआ था। आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता है प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा। हम सभी अपने कंक्रीट के जंगल में सुरक्षित शरणस्थली बनाकर खुश थे लेकिन इस एक ही झटके ने हम सभी को बता दिया कि पेड़,जंगल,ऑक्सीजन,पशु-पक्षी किस तरह हमारे सहयोगी होते हैं जिनके बिना हम सिर्फ एक यांत्रिक जीवन जी रहे थे। वर्तमानी प्रासंगिकता का सुन्दर उदाहरण देखिए-

कब चेतोगे/कटते जाते पेड़/दिन-पे-दिन/बनती जाती पृथ्वी/पुनः आग का गोला।

बाग़ उजड़े/उगी है बोनसाई/फ्लावर-पॉट् में/कोई बतलाओ भी/कहाँ जाए चिड़िया?

          खंड दो ‘समाज’ के अंतर्गत हमें घर-परिवार, गृहस्थी की बातें, अपने तीज-त्यौहार, अमीरी-गरीबी एवं  पाखण्ड का सजा हुआ बाज़ार के दृश्य वर्णित हैं जो अनायास ही हमें अपने आपसे जोड़ने में सक्षम हैं। इस खंड में बिखरते हुए समाज की चिंता के साथ दरकते हुए रिश्तों के साथ इन दृश्यों ने आकर्षित किया- बेटियों से घर है आनंदसदन, शिशु के लिए माँ का टीचर और पापा का प्रिंसिपल होना एवं बच्चे की प्रतीक्षा-कब आयेगी आया। इन उल्लिखित ताँका में सामाजिक विसंगति का पूर्णतःविरोध और स्पष्टवादिता का मैं कायल हुआ क्योंकि इन दिनों ताँका में ऐसा लेखन देखने को बहुत कम मिलता है-     

छै बज गये/बॉस के चैम्बर में/पत्नी अकेली!/बाट जोहता पति/ऑफिस के बाहर।

बोतल खुली/महक उठी झोंपड़ी/छा रही मस्ती!/नाक दाबे घूँघट/काट लाया सलाद।

मन्त्रमुग्ध है/दहेजलोभी वर/धनवर्षा से/साल भी न बीता है/रिक्त पड़ा रिश्ता है।

जगी वासना/जगा छल का भाग्य/जगा पाखण्ड/दमकी अंधभक्ति/चमकी बाबागिरी!।

ट्रैक्टर आया/बैल हुए बेगाने/दो ही दिनों में/नाँद पर अकेली/हुड़क रही भैंस।

बिक ही गयी/प्याऊ की गुमटी/हँसे बाज़ार/अब उसमें सजीं/शराब की बोतलें।

अभिनन्दन/करवा रहा कवि/पैसे देकर/फिर भी चाह रहा/मिले उसे सम्मान।

         वाकई अब हम सबको इन मुद्दों पर अपनी बातें समाज के समक्ष बेबाकी से रखनी होगी अन्यथा इनसे सम्बंधित समस्याओं को निपटाने में हमारा भविष्य ही निपट जाएगा।  पैसे देकर कवियों द्वारा सम्मान लेना, प्याऊ का शराबखाने में बदल जाना, आधुनिकता के अन्धानुकरण में रोजगार छीन जाना, दहेज़ की अग्नि में दहकती बेटी और बाबाओं के मकड़जाल जैसे मुद्दे मुखरता से ऐसे ही लिखे जाने चाहिए।

         ‘सत्ता-व्यवस्था’ खंड के अंतर्गत वर्णित हैं लोकतंत्र की कमियाँ, सत्ता-माफियाओं का गठजोड़ एवं  धूर्त मीडिया के साथ सभी विसंगतियाँ हैं। आम जन मानस अपने जीवन में प्रतिदिन इससे दो-चार हो रहा है जैसे सुरसा महँगाई,बेलगाम भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी का बाज़ार और बेरोजगारी की मार इन सबके साथ मौज करते नेता हैं तो रोते हुए किसान का दर्द भी इनमें शामिल है। बिकाऊ शिक्षा व्यवस्था और मीडिया पर पहली बार किसी ताँकाकार ने अपनी अभिव्यक्ति दी है- 

पूँजी की टोपी/राजनीति के शीश/विराजमान/सत्ता ढारती मधु/भरे हुए पात्र में।

महँगाई है/गरीब की बिटिया/बढ़ती जाती/पियक्कड़ बाप-सा/मस्त पड़ा शासक।

शिक्षा बिकाऊ/खरीद सकते हो/तो खरीद लो/वर्ना पढ़ाओ बच्चे/सरकारी स्कूल में।

बातें बनाती/सत्ता की गोदी बैठी/धूर्त मीडिया/एक भी न उठाती/जनता की समस्या।

टेलीविजन/देखे न अच्छा-बुरा/चालू रहता/पूँजी का यह दल्ला/बेचता चटखारे।

          ‘आत्म-संवाद’ खंड के अंतर्गत एक सकारात्मकता की लहर के साथ हमारे जीवन की सुख-दुःख की बातें हैं,अपेक्षाओं से उपजा दर्द है और वक्त की बातें हैं। इस भागमभाग ज़िंदगी में हम सदैव अपने कल की चिंता बटुए में लिए घूमते रहते हैं-सबको परेशान किये हुए बनिस्बत कि हम आज की सोच लेते। हम इस चार दिन की ज़िंदगी में अपनी  चिंताओं की पोटली धरे,भेद के चश्मे से जीवन-यापन करते रहते हैं। कभी हमने अपनी इस मायावी मरीचिका को नहीं पहचाना? आखिर एक दिन सभी को यहाँ से खाली हाथ ही लौट जाना है काश कभी तो हम सीख पाते अपने अपने ढाई आखर-   

कल की नहीं/करनी है तो करो/आज की बात/कल किसने देखा/आया,आया न आया।

सिर पे सूर्य/चमकता हाईवे/झलके पानी/पहचान रे मन/मृगमरीचिका को।

माटी का घर/भुरभुराने लगा/अब तो चेत/कौन यहाँ अपना/और कौन पराया?  

         हिंदी ताँका संग्रह ‘वन्दनवार का साहित्य जगत में स्वागत है, इस संग्रह ने ताँकाकारों के लिए एक नया मानक स्थापित किया है कि हमारी रचनाएँ जब तक आम जनमानस के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं करेंगी वे सभी थोथी होंगी। इस संग्रह के सभी पक्ष ठोस हैं विशेषकर संवेदनाओं की अनुभूति और उसका प्रबल प्रकटीकरण क्योंकि यही दृष्टि हमें आम लोगों से पृथक करती हैं।

         इस वन्दनवार से साहित्य की बगिया चहकती रहे, वहाँ खुशियों की आमद हो, मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

रख विश्वास/आएगा एक दिन/नया सवेरा/फैलेगा उजियारा/छँटेगा अँधियारा।

रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर-रायपुर, छत्तीसगढ़

मो. 9424220209

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वन्दनवार-ताँका संग्रह, राजेन्द्र वर्मा

प्रकाशक-बोधि प्रकाशन जयपुर, सन-2021,  मूल्य-120/-,  पृष्ठ-88 

ISBN: 978-93-5536-035-9

भूमिका-डॉ. मिथिलेश दीक्षित

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