कविता

शाश्वत प्रेम ....


मुझे प्रेम नहीं है तुमसे कहते वक्त

हम चयन करने लगते हैं कि –

हम किससे प्रेम करते हैं और किससे नहीं


सामने वाले के प्रेम का हमें ख्याल ही नहीं होता

कि वो क्या सोचता है मेरे बारे में ?

जबकि प्रेम सर्वत्र बिखरा होता है |


प्रेम कहाँ सोचता है –

जाति , वर्ग , लिंग एवं पैसे के बारे में ?

यह निश्छल होता है स्वच्छंद वायु और

कलकल बहती नदी के जैसे ,


प्रेम बंज़र भी नही होता ,

प्रेम किसी के मरने से मरता भी नहीं ,

यह शाश्वत है आत्मा की तरह

जो देह बदलते रहता है |


कहते हैं प्रेम का रंग गुलाबी होता है

फिर लोग इसे लाल क्यों कर देते हैं सड़कों पर ?

तेरे प्रेम का रंग 

मेरे प्रेम के रंग से अलग कैसे है ?


एक बच्चे ने मुझसे पूछा

प्रेम कैसे दिखता है , इसे मैं कैसे चिन्हूँगा ?

मैं झोपड़ियों की ओर देखते हुए

उसके सिर पर हाथ फेरने लगा ,


आखिर प्रेम का दुर्गम सफ़र तय करने

मुझे पार करने ही होंगे –

दुःख , दर्द , कराहों , आहों का समुद्र

क्योंकि मैं प्रेम की खोज का वास्कोडिगामा हूँ |

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