शाश्वत प्रेम ....
मुझे प्रेम नहीं है तुमसे कहते वक्त
हम चयन करने लगते हैं कि –
हम किससे प्रेम करते हैं और किससे नहीं
सामने वाले के प्रेम का हमें ख्याल ही नहीं होता
कि वो क्या सोचता है मेरे बारे में ?
जबकि प्रेम सर्वत्र बिखरा होता है |
प्रेम कहाँ सोचता है –
जाति , वर्ग , लिंग एवं पैसे के बारे में ?
यह निश्छल होता है स्वच्छंद वायु और
कलकल बहती नदी के जैसे ,
प्रेम बंज़र भी नही होता ,
प्रेम किसी के मरने से मरता भी नहीं ,
यह शाश्वत है आत्मा की तरह
जो देह बदलते रहता है |
कहते हैं प्रेम का रंग गुलाबी होता है
फिर लोग इसे लाल क्यों कर देते हैं सड़कों पर ?
तेरे प्रेम का रंग
मेरे प्रेम के रंग से अलग कैसे है ?
एक बच्चे ने मुझसे पूछा
प्रेम कैसे दिखता है , इसे मैं कैसे चिन्हूँगा ?
मैं झोपड़ियों की ओर देखते हुए
उसके सिर पर हाथ फेरने लगा ,
आखिर प्रेम का दुर्गम सफ़र तय करने
मुझे पार करने ही होंगे –
दुःख , दर्द , कराहों , आहों का समुद्र
क्योंकि मैं प्रेम की खोज का वास्कोडिगामा हूँ |
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