दुःख कोई चिड़िया तो नहीं –
अमित मनोज [ हरियाणा ]
प्रकाशक – अंतिका प्रकाशन – गाजियाबाद [उ.प्र.]
सन – 2015 , पृष्ठ -128 , मूल्य– 250=00 Rs.
ISBN NO.– 978-83-81923-81-8
समीक्षक
– रमेश कुमार सोनी ,बसना ,जिला – महासमुंद [ छत्तीसगढ़ ]
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संभावनाओं के रचनाकार का दुःख चिड़िया नहीं है
..
अमित मनोज एक युवा कवि हैं
और हिंदी में शिक्षकीय दायित्व निभा रहे हैं साथ ही सम्पादक की भी भूमिका में हैं |
इस नाते आपकी समाज के प्रति साहित्यकार होने के कारण ज्यादा जिम्मेदारी हो जाती है
कि इस समय समाज को क्या परोसा जाए ? यह कविता संग्रह कुल – 85 कविता का सुवासित
उद्यान है जिसमें विविध रंगों / दृष्टिकोण की कविताएँ संग्रहित हैं |
‘बिटिया के सैंडल’ कविता में आपने कन्या भ्रूण हत्या का
बखूबी चित्रण किया है और विरोधस्वरूप समाज को आइना दिखाने की कोशिश की है-
........कौन
पसीजेगा देखकर मेरी हालत
और
बिटिया के सैंडल लिए मुझे देख
किसको
याद आएँगी अपनी बेटियाँ
जो
बहुत सी तो मारी जा चुकीं गर्भ में
और
बहुत सी भेज दी गयीं अजनबी घरों में सदा के लिए
इस
तरह जैसे नहीं जरुरत है अब उनकी कभी .....|
‘गाँव में नयी बहू’ कविता में आप
उसके डर और सलीके को शब्द देते हुए कहते हैं कि –
.....गाँव
में नयी बहू की चर्चा खूब चलती है
गाँव
में नयी बहू डर – डर के बहुत रहती है |
‘खाली नहीं होती औरतें कभी’ कविता में
औरतों के खालीपन में अपने शब्दकोष लिए झाँकने की एक सफल कोशिश की है ; अक्सर उनके
लिए यह कह दिया जाता है कि - आखिर तुम लोग घर में करती ही क्या हो ? यह कविता इस
प्रश्न का सही उत्तर है –
.......औरतें
खाली नहीं होती
या
पसंद ही नही करती खाली होना
जब
भी पाती हैं थोड़ी बहुत काम से फुर्सत
तो
करने बैठ जाती हैं बच्चों से प्यार
या
एकांत हुआ तो पति से ......|
‘औरत
और विज्ञापन’ कविता में आजकल के भद्दे दृश्यों की हकीकत को उजागर किया है और
औरतों को नुमाइश की वस्तु बनाए जाने का अप्रत्यक्ष रूप से पुरजोर विरोध किया है ,
यहाँ आपकी ब्यंग्य शैली निखर कर प्रकट हुई है –
.....
औरत जानती है विज्ञापन में दो ही चीजें हैं
एक
दृश्य दूसरी भाषा
बिन
दृश्य के न विज्ञापन का पता चलता है
न
औरत का
औरत
बिन विज्ञापन अधूरा है
और
विज्ञापन बिन औरत |
आपकी कविताओं के कई केन्द्रीय भाव हैं उनमें से
एक है - नारियों का चित्रण | उपरोक्त कविताओं के अलावा - माँ तड़के से लग रही है ,
तस्वीर , गाँव में कुछ जन , शहर जाने वाली औरतें , उत्सव , मामा का घर , बहनें ,
बरसों बाद , थाली , चिड़िया , बिखरी चीजें , एक पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर एवं
तुम में भी औरतें रिश्तों में जिन्दा हैं और अलग – अलग दृश्यों के साथ प्रस्तुत
हुई हैं जो अपने आपको पढ़ने की उम्मीद में पसरी हुई हैं |
किसी भी कवि की कविताओं
में उसका अपना गाँव , रिश्ते , परम्पराएँ , लोक जीवन ....जिनसे वह कभी जुड़ा था वह
प्रकट हो ही जाता है भले ही अब वक्त ने उनसे यह सब छीन लिया हो परन्तु ये सब उनके
दिलों के बीहड़ में कहीं न कहीं साँसें ले रही होती हैं जो यहाँ प्रस्तुत हुईं हैं ;
‘घर एक और दो’ कविता में भी स्त्रियाँ ही हैं जो इसे घर बनाने की जद्दोजहद
में खटी पड़ी हुई हैं –
.....सिर्फ
इसलिए कि
बचा
रहे यह घर जैसा भी है
पृथ्वी
पर बच्चों के लिए | [ घर – एक ]
.......कौन
सी कविता तुम्हें देती है खाने को रोटी
इतनी
जिल्लत के बावजूद कैसे जी लेते हो
बंद
कमरे में | [ घर – दो ]
‘एक पुराने कुएँ को देखकर’ कविता में
कवि की स्मृतियाँ जीवित हैं बाबा की ,खेत की एवं वहाँ के लोक जीवन के चुहल की ; ‘मेला’
अब गाँव से कट चुका है लेकिन इसकी खुशबू साँसे ले रही है | मेला का अब गाँव में कोई इंतज़ार नहीं करता
क्योंकि इस वैश्विक दुनिया में गाँव अपने आपमें एक मेले से कम नहीं है , बाज़ार का
यहाँ चप्पे – चप्पे पर अवैध कब्ज़ा है | गाँव का ‘छोटा स्टेशन’ तब खुश होता
है जब उसके टिकट घर से कोई सवारी टिकट खरीदता है तब वह ताली बजाते हुए उनकी मंगलमय
यात्रा की कामना करता है | ‘ज़मीन का फोन’ ज़मीन की बात करता है , घर के किसी
सदस्य की तरह यह साँसें भी लेता है | इस रूट की सभी लाइनें ब्यस्त हैं अब लैंडलाइन
की कहानी सुना रहे हैं -
.....अब
भी व्यस्त हैं लाइनें
ज़रा
देर बाद करें कॅाल
ज़रा
देर और कर लें प्यार
....ज़रा
देर और जी लें सतरंगी दुनिया| [इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं]
‘पहचान एक और दो’ में जाति और धर्मों के चक्कर में फँसे आम आदमी की औकात सिर्फ दो कौड़ी की रह जाती है तब वह मात्र एक वोटर से ज्यादा , कहाँ कुछ बचा रह पाता है | वह भी खदेड़ दिया जाता है रेवड़ में भेड़ की तरह --
.....सत्तासीन
जंगल में बैठे चबाएँगे घास का तिनका
करेंगे
घोषणाएँ सब धर्मों के समान होने की
कहेंगे
उनके आने से यहाँ के सब भय ख़त्म हो गए
अब
सब चुन सकेंगे धर्म की कोई झंडी
बिना
किसी सौदे के
और
जब कोई चुनने को चलेगा
मार
दिया जाएगा बेरहमी से उसे |
...........यह वक्त घर लौटने का ही है
सब
गलियाँ खून से सनी
हत्यारों
के जश्न में डूबी हैं
फिर
भी कहीं – कहीं पैर रखने की जगह
बची
हुई है लौटने को .......
...यह
वक्त हथियारों को फेंकने का है दोस्त ..|[यह वक्त घर लौटने का है]
जिंदगी में विकास के अंतिम
पायदान पर खड़े ब्यक्तियों की चिंता , कहीं न कहीं इन पंक्तियों को सर्वहारा वर्ग
के प्रतिनिधित्व हेतु रची गयी हैं क्योंकि इनके बिना किसी समाज की अवधारणा ब्यर्थ
है | ‘हमीं’ कविता में नाई , कहार और ....वर्ग के शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद
है वहीँ ‘चौधरी साहब’ में उनके सामंती जीवन और ठाट – बाट में सिसकते
भंगियों की आवाज़ को आपने मुखर किया है | कविता ‘बूढ़ा खाती’ में गाँव का
पुश्तैनी ब्यवसाय [बढ़ई] के ख़त्म होने का दर्द छलक रहा है,गुम होते हुनर को किसे
सौंपे? का प्रश्न भी इसमें शामिल है |
.....वह
सारा दिन घूमता रहता है
पेड़ों
की लकड़ियाँ देखता और
निकालता
रहता है उनसे अपनी पसंद का फर्नीचर
.....बूढ़ा
इस बात से परेशान है कि –
वह
अपने औजार सौंपे तो किसे ! [ बूढ़ा खाती ]
....जहाँ
हँसने और रोने के सारे अर्थ बदल गए हैं
वह
आदमी हँसे तो कैसे
रोए
तो कैसे ? [ हँसना और रोना ]
आधी
दुनिया आधी से नाराज़ है ......
...आधी
दुनिया , आधी दुनिया के लिए
जिए
तो जिए , मरे तो मरे | [ आधी दुनिया ]
....आँखें
सब फालतू का देखती हैं
कान
सब फ़ालतू का सुनते हैं
.....
हत्याएँ होती हैं तो होती रहें
अन्याय
होता है तो होता रहे
हम
न उधर आँखें लगाएँ न कान
कान
, कान न रहें
और
आँखें , आँखें | [ आँख और कान ]
वैसे भी दुःख कोई चिड़िया तो नहीं है वह सुख के
साथ – साथ आते – जाते रहता है फिलहाल दुःख यहाँ आम आदमी की जिंदगी में पालथी मारे
बैठा है | अपने जीवन के गहन अनुभूतियों का निचोड़ इन कविताओं में स्पष्ट रूप से
परिलक्षित होता है | इस संग्रहणीय अंक की सभी कविताओं में भावों की प्रधानता और
संप्रेषणीयता सटीक है जो पठनीय है | यह संग्रह हिन्दी साहित्य की अब एक धरोहर है
जिससे एक नयी उम्मीद की जा सकती है कि - आपका आने वाला संग्रह और भी धारदार आवाज़
लिए होगा |
संभावनाओं के इस रचियता को मेरी
शुभकामनाएँ , बधाई |
....जब
पानी से बुझे न प्यास तो
खून
पीना शुरू कर दें और भूख भी मिटाएँ तो
मांस
के टुकड़ों से ही ..
....सूरज
सिर्फ हमारे घर ही आए
रात
का चन्द्रमा हमें ही दिखे ....
यह
कैसी इच्छा है ....| [ यह कैसी इच्छा है ]
.......... ..........
[
राज्यपाल पुरस्कृत ब्याख्याता एवं साहित्यकार ]
जे.पी.रोड
– बसना , जिला – महासमुंद [ छत्तीसगढ़ ]
पिन
– 493554 / संपर्क – 7049355476

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