समीक्षा - खोई हरी टेकरी


प्रकृति परी की खोई हरी टेकरी -

                   समीक्षक -  रमेश कुमार सोनी , बसना                   
                            पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान मेरठ  द्वारा प्रकाशित एवं  डॉ. सुधा गुप्ता द्वारा लिखित '  खोई हरी टेकरी ' पर्यावरणीय हाइकु संकलन मुझे  प्राप्त हुआ । वर्तमान परिवेश में जहाँ आम जन मानस पर्यावरण संरक्षण का  हल्ला बोल रहे हैं ,  विविध  संस्थाएँ  अपने - अपने तरीके से जन जागृति  अभियान में लगी हैं ;  शासन की कोशिशें भी जारी है तो ऐसे में साहित्य का भी अपना फर्ज बनता ही है कि वह समाज को उसका प्रतिबिम्ब दिखाए  ;  इसी कड़ी में हाइकु  ने पहले बाजी मार ली है। हाइकु  हिन्दी लेखन विधा में अब एक जानी -पहचानी  विधा है जो लघु पत्र - पत्रिकाओं में  अपना स्थान सुनिश्चित  किए हुए है ,  ये और बात है कि बड़े  बैनर की पत्रिकाएँ इससे दूरी  बनाए हुए  हैं लेकिन इंटरनेट और फेसबुक पर इसने अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज  की है। हाइकु लेखन में डॉ. सुधा  गुप्ता जी एक सुप्रसिद्ध हाइकुकार हैं।और उनका लेखन  इस संग्रह  में नवोदितों के  लिए अनुकरणीय होगा ऐसा प्रतीत होता है । 
               ' खोई हरी टेकरी ' हाइकु संग्रह के रुप में पर्यावरणीय दास्तानों  का एक लघु शोध जैसा ही है जिसमें पर्यावरणीय  विषयों का समग्र  है। आरंभ चेतावनी से हुआ है जो वृक्षदेवता से प्यार करने और उसे सींचकर बड़ा करने का संदेश दे रही है- 
 छोड़ क्रूरता / सींच प्यार कर तू  / वृक्ष देवता । 
हरीतिमा की महिमा का वर्णन करते हाइकु पृथ्वी का वृक्षों के प्रति अपना आभार प्रकट कर रहे है - 
तरु देवता / पृथिवी आभारी है / सदा  तुम्हारी ।
प्रकृति परी / कहाँ पायी तूने ये / जादू की छड़ी ।
चितेरे ! तूने / हरा रंग बिखेरा / मुट्ठी भर के । 
               हरीतिमा विनाश का वर्णन करते हुए हाइकु शोक मनाती खड़ी है - 
खोजती फिरे / खोई हरी टेकरी  / गूँगी धरती । 
पेड़ों के साए  / सपनों में आते हैं / सड़कें सूनी ।
तुलसी चौरा /संझवाती का दिया /कहाँ खो गए।
वायु  प्रदूषण से परेशान हाइकु ऑक्सीजन ब्यवस्था करने का संकेत जिन्दगी से करते नजर आ रहे हैं , वहीं जल प्रदूषण,  मृदा प्रदूषण , वायु प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण एवं आकाशीय प्रदूषण की सुंदर ब्याख्या करते हुए आम जन मानस को  जागृत  करने की कोशिश हुई है -
- वायु दूषण / हनन ऑक्सीजन / नष्ट  जीवन ।
- रूठे हैं मेघ / सूख गई नदियाँ/ कुएँ भी खाली।
- सूखे गले से / कलप रही हवा / घूँट पानी को।
- फटा पड़ा है / हजार टुकड़ों में / पोखर दिल ।
- मानव चेत / ओजोन परत में / बढ़ता छेद ।
- अशुभ दौर / आश्विन में कोहरा / माघ में बौर। 
                     इन दिनों पृथ्वी जहाँ कुकर के रूप में परिवर्तित हो रही है ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से वहीं  इसके चलते जैव  विलुप्तता का दौर भी आरम्भ हो चुका है। जो जीव इस दुनिया के अनुकूल नहीं हैं  वे गायब हो रहे है;  यूँ कह लें कि जिनका अब पृथ्वी पर कोई रोल बाकी  ना रहा उसे पृथ्वी स्वयं समाप्ति/बिलुप्ति का वरदान दे देती  है । यह आरंभ अब  अन्य जीवों के विलुप्तता के दौर की  उलटी गिनती से शुरु हुई है ,  वहीं यह समस्या मानव जीवन / अस्तित्व के लिए एक बड़ी  चुनौती बनकर उभरी है जिसे हाइकु में बखूबी  चित्रित किया गया है - 
सदी का सच / ये ग्लोबल वार्मिंग/ पृथ्वी का ज्वर।
लुप्त हो रहे / ग्रीष्म -शीत मानक  / बेहाल जीव ।
प्रकृति एक / अबूझ पहेली है/ खेल निराले ।
चैत की शोभा / लूटा दी तुमने ही / खोई चिरैया।        
                   कस्तुरी सी खुशबु , सारस सा प्रवास और जंगल का  गीत गाते हुए ये हाइकु का  सुंदर रेखांकन हैं - 
भटकाती है/ अपनी ही खुशबू / खोजे कस्तूरी ।
लौट ना पाते / यायावर सारस / गुम हो जाते ।
मनमौजी है / जंगल को गाने दो / अपना गीत ।
मानव! करो / भूलों का प्रायश्चित / सुधर जाओ।       
                       कुछ हाइकु अपने आप में पूर्ण होकर पर्यावरणीय जागृति का संदेश देने के अलावा अन्य संकेत भी देते -नजर आते हैं -
लिखते पेड़ / हरियाले पन्ने पे / प्रेम की पाती।
मनभावन  / ये हरी छतरियाँ / खुली पड़ी हैं ।
रात सुनाते / मधुर लोरियाँ तो / पेड़ सो जाते ।
दुनिया गाँव / ग्लोबलाइजेशन / कहीं ना छाँव ।
गीत बुनती  / गहरे सन्नाटे में / कोई गौरैया । 
                   वास्तव में मानव के लिए प्रकृति आज भी वैसी ही अबूझ पहेली जैसी ही है जैसी वर्षों पूर्व थी। ये  और बात है कि हमने विज्ञान के विकास के साथ - साथ इसका दोहन करना सीख लिया और धीरे-धीरे हमारी जरूरतें बढ़ती गयी । यही जरूरतें अब हमारी स्वार्थ लोलुपता बन गयी है जिसकी क्षतिपूर्ति प्रकृति के वश में भी नहीं फलतः विकास के साथ विनाश का नाम भी जुड़ने लगा है। यह आम जनमानस ने लिए चिंतन , मनन का दौर है कि हम अभी से अपना वर्तमान पर्यावरण सुधार नहीं सके तो हमारा भविष्य एक प्रश्नचिन्ह के सामने खड़ा है । इन्हीं संदेशों को आत्मसात किए हुए ' प्रकृति परी की खोई हरी टेकरी ' आप समस्त पाठकों के समक्ष है । 
हार्दिक शुभकामनाओं सहित.. -
                                                  रमेश कुमार सोनी,  बसना
                                                  ( छत्तीसगढ़ )493554
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खोई हरी टेकरी - पर्यावरणीय हाइकु संग्रह - डॉ. सुधा गुप्ता - मेरठ ( उ.प्र.) 2013 
प्रकाशक - पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान , मेरठ  ,  मूल्य - 80 रु. पृष्ठ - 31
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1 comment:

  1. संक्षेप मैं अच्छी समीक्षा लिखी है । हार्दिक बधाई ।






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