प्रकृति की सफर के छाले गिनते हुए यात्रा -
हाइकु शिखर डॉ. सुधा गुप्ता जी एवं प्रकाशक हाइकु श्रेष्ठ रामेश्वर कम्बोज ' हिमांशु ' जी के प्रकाशन एवं टिप्पणी के साथ हिन्दी जगत की शायद पहली हाइबन एवं हाइकु संग्रह - 'सफर के छाले हैं ' को पढ़ते हुए कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ ।
हिन्दी साहित्य की नयी विधा हाइबन जो कि एक यात्रा वृतांत है तथा हाइकु पर खत्म होती है का आरंभ 1840 में कवि बाशो मे किया था। इसकी वार्ता सरल , मनोरंजक , बिम्बात्मक एवं संक्षिप्त होती है। 100 से 300 शब्दों की आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखा जाने वाला हाइबन डॉ.सुधा गुप्ता जी ने 1980 से लिखना आरंभ किया था । हाइबन में प्रस्तुत गद्य , हाइकु की व्याख्या नही होती । ( हाइबन चूँकि एक नवीन विधा है मेरे लिए, इसलिए उक्त पंक्तियाँ पुस्तक के इसी भूमिका के अनुसार उद्धृत हैं )
डॉ. सुधा गुप्ता जी के हाइबन बेहद करीब (जिंदगी के ) से लगते हैं ये वर्तमानी यात्रा वृतांत के उबाऊपन और लंबेपन से बेहद दूर हाइकु सा गागर में सागर भरने जैसी विधा है । 37 हाइबन आपके जीवन से गुजरे हुए पलों की गाथा है जिसे हाइकु में आपने बखूबी संजोया हुआ है । इन हाइबन में अनिद्रा से शुरू होकर - खाली सराय, पाथर पंख , बाँस का पौधा , नैनीताल प्रवास, सेवानिवृत्ती उपरांत सेवा , कुशीनगर यात्रा , देवी दर्शन , कॉलेज टूर , वैधब्य , शिवाजी का किला , चारमीनार , डायबिटीज का दर्द , फाख्ते का पोशाक , मार्च में थकान , बया का घोंसला बनाना , दस्तक देता बसन्त , कर्मयोगी सूर्य , संगदिल मौसम , अर्चि का आचमन , साथ चलते , दराज , पुकार , नीम अँधेरा , फड़फड़ाते पन्ने , साँझ की देहरी पे , मीडिया की आज़ादी ,और महकी सुबह ।
जितने करीब और सुंदर तरीके से एक माली अपने बाग को संवारता है जैसे एक मूर्तिकार अपनी मूर्तियों को आकार देता है , जैसे कोई कूचीकार अपनी पेंटिग्स को रंग देता है उतनी ही सजीवता से डॉ० सुधा गुप्ता जी ने अपने हाइबन को शब्दों में पिरोया है और उसी खूबी के साथ रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी ने प्रकाशन किया है , आप दोनों ही साधुवाद के प्रतीक बन चुके हैं आपको हिंदी जगत सदैव स्मरण रखेगा। कुछ हाइबन जो मेरे दिल से होकर गुजर जाए वो इस प्रकार है -
' खाली सराय ' - बच्चे कब और कैसे इतनी जल्दी बड़े हो गाए ……… कहाँ रौनक और कहकहे थे और कहाँ खाली सराय ।
यह हाइबन वर्तमानी एकल परिवारों में इन दिनों की बड़ी गंभीर समस्या बनी हुई है ।
' कुशीनगर यात्रा ' - प्राणों का यह स्पंदन शब्दातीत है.. ….तथागत की ऐसी प्रत्यक्ष उपस्थिति ! बौद्ध मठों और स्तूप की यात्रा , शांति की यात्रा आज भी है ।
राजस्थान प्रवास - 1976 से 2001 के बीच यहाँ की दुर्दशा देखकर मन रोने को करता है। हरियाली और वन्य प्राणी संग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक चिंतनीय प्रश्न है।
निषिद्ध 2003 - कैसे अपराध बोध से घिर गयी हूँ मैं ……... रंगीन कपड़ों और जेवरों की बात तो दूर प्रकृति के सुन्दर दृश्य भी मेरे लिए निषिद्ध हैं अब '!
भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में वैधब्य जीवन की अनूठी दास्तान अब भी परेशान करती है ।
शिवाजी का किला और खंडहर - शिवाजी के ध्वस्त किले के खंडहर आज भी उस ओजस्वी महान नायक की यश गाथा सुना रहे हैं ।
' बाहर आती तो कैसे ? रास्ता पाती तो क्यों कर ? यह खंडहर तो खुद मेरा अपना था !! '
' ब्यक्ति जब अपने खोह और खंडहर से निकलता है तभी वह ऐसा लिख पाने में सक्षम होता है और शिवाजी जैसा योद्धा बन पाता है।'
दुःख और सुख -' दुःख एक चीता है और खुशी मासूम हिरनी।'
'मैं तो बन्दिनी शुकी ' ठहरी ,पिंजरे की सलाखें मुझे सम्मोहित करती हैं ।
' जिन्दगी ये ऐसे वाकयों से सभी को पार पाना पड़ता है वैसे दुःख का चीता पंजा मारकर जरूर भागता है । '
फाख़्ते का पोशाक बदल ना पाने का दर्द , आई .सी . यू .का कष्ट परिंदों की कुशलता , बसंत में प्रकृति के उत्सव में शामिल न हो पाने का गम , पिता के प्यार की कमी खलना , आलस और बेचैनी पर तसल्ली का पेपरवेट रखना , साँझ की देहरी पर दर्द के पहाड़ का टूटना और महकी सुबह । आपके प्रकृति के निकट रहते हुए संवेदनाओं को महसूस कर शब्दांकित करने की अद्भुत क्षमता आपको शिखर तक पहूँचाती है । इन हाइबन के अंत के जो हाइकु मुझे बहुत भाए वे हैं -
दक्षिणाभिमुख / निर्वाण की शांति है / बुद्ध के मुख !
देखने गए / हुसैन सागर तो / डूब के लौटे ।
चील अकेली / बादल ,हवा सब / मैं भी अकेली।
आई चिरैया / टहनी मुस्कुरा दी / उड़ी उदास ।
उनका आना / खुशनुमा सुबह / महक उठी ।
इस पुस्तक का दूसरा भाग- ' मौसम बहुरंगी ' में 8 ऋतुओं में प्रकृति अपने जो रंग हमें दिखाती है और प्रकृति अनुसार जो जीव जो अनुकूलताएँ प्रदर्शित करते हैं की प्रत्येक स्पंदन की जीवंत शब्दावली का वर्णन ये हाइकु कर रहे हैं तथा हिन्दी जगत के अब ये अनमोल थाती बन गए हैं । मेरी एहसासों के झील पर ये हाइकु चाँद सा घुस आया है -
दर्पण देखे / फूलों के भार झुकी / नव वल्लरी।
पौष का सूर्य / पढ़ाई में कच्चा है / अभी बच्चा है।
लाल छाता ले / घूमती वनकन्या / जेठ मास में ।
पर्वतवासी / बच्चे चले हैं स्कूल / धुआँ उगलें।
बारिश बूँदें / तार पर लटकीं / मोती लड़ियाँ ।
धूप जो हँसी / कोहासे की ओढ़नी / खिसक पड़ी ।
दो युवा बेटियाँ / धरती है बैचेन / बाढ़ व सूखा ।
मिनी गुलाब / गुलाबी गालों वाले / बच्चों का मेला ।
पूनो की रात / बटोर लाई किस्से / आँचल भर ।
गेंदा के ठाठ / स्वर्ण जागीर बख्शी / ऋतु रानी ने ।
अब विदा दो / झरते पत्ते बोले / पेड़ रो दिये।
प्रकृति को देखकर हाइकु में शब्दांकित करने की अद्भुत कला दीर्घायु और स्वस्थ रहे ताकि समस्त हिंदी जगत आपकी ऊर्जा से हाइकु की निर्बाध यात्रा कर सके ।
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जन्माष्टमी 2015
रमेश कुमार सोनी , बसना ( छत्तीसगढ़)
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सफर के छाले हैं - हाइबन एवं हाइकु संग्रह , डॉ. सुधा गुप्ता - मेरठ ( उ.प्र.) 2014
अयन प्रकाशन , महरौली-नई दिल्ली
मूल्य - 220रु. , पृष्ठ - 112
भूमिका - रामेश्वर काम्बोज ' हिमांशु '
समीक्षक - रमेश कुमार सोनी , बसना , ( छत्तीसगढ़ )
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