चिरैया की ख़ुशी में चहकते हाइकु
जापानी साहित्य की विधा हाइकु, अनुभूतियों के शब्दांकन की सघनता का काव्य है जो-5,7,5 यानि 17 वर्णों की तीन पंक्तियों में लिखी जाती है। यह एक सम्पूर्ण कविता है। काव्यसौन्दर्य की परिपूर्णता के साथ ही शिल्पगत अनुशासन किसी हाइकु के प्राण है। इसके संकेतों में रचे गए दृश्य पाठकों के समक्ष स्पष्ट रुप से खुलते हैं। किसी क्षण विशेष के अहसास को साहित्य की इस विधा में रचना कड़ी साधना की अपेक्षा रखता है।
अपनी संवेदनाओं को हाइकु में रचने, विषय की कोई बाध्यता नहीं है यह लोकजीवन की किसी भी अन्तर्सम्बन्धों में रचा जाता है जिसमें प्रकृति प्रमुख है। इस संग्रह में हाइकु की कुल संख्या-345 है जो 20 विविध उपखण्ड में वर्णित हैं। ये हाइकु उमेश महादोषी द्वारा मार्च 2020 के पूर्व के लिखे हुए हैं जो रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से प्रेरित हैं। परिवेशगत परिस्थितियों से आपमें उपजी आत्मचेतना की वैचारिक फसल ‘चूँ चूँ चिरैया’ के रुप में प्रस्तुत हुआ है। साहित्य की विविध विधाओं में रचने और संपादकीय दायित्व निभाने के बाद आपका यह पहला हाइकु संग्रह आया है।
रिश्तों में सबसे बड़ा स्थान माँ का होता है और इसका कर्ज़ कोई कभी नहीं चुका सकता। मॉं, आज के परिवेश में भी सर्वोपरि है। माँ पर साहित्य में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसमें हाइकु भी पीछे नहीं है। माँ की ममता सभी योनियों में एक समान सी है। इन दो हाइकु में माता की महत्ता को सुंदरता से रेखांकित किया गया है-
बैठी गौरैया/मुँडेर पे ताकती/चोंच में धागा।
माँ की चुप में/कविता-सा कुछ है/मानो सच में।
उम्मीद आज के दौर में सबसे अहम है इसके दो रुप इन हाइकु में देखने को मिलता है। कागज़ की नाव का पार होने की उम्मीद (प्रतीक) मेहनत की बैशाखी पर निर्भर है वहीं नीम के नीचे धूप का सरपंच की तरह बैठने की चाहत, धूप की सरपंची ज़िद है-
हो न हो आज/कागज की नाव भी/होगी ही पार !
नीम तले, रे!/धूप चाहे बैठना/ज्यों सरपंच !
राजनीति में आज सब जायज़ माना जाने लगा है धीरे-धीरे तमाम ऐब इसमें स्वीकार होने लगे हैं। शुचिता और उम्मीद क्रमशः क्षीण होने लगे हैं ऐसे में ये हाइकु बहुत कुछ अर्थ लिए प्रस्तुत हुए हैं-
तीनो बन्दर/हो गये एकाकार/कुर्सी पै बैठ !
नशे में तख्त/भींचती आवाम है?मुट्ठियाँ सख्त !
हाइकुकार की कल्पना में उसका गाँव हाइकु विधा में उतर आया है जहाँ सब आदर्श है। नीम की छाँव(सुख) दोनों स्थानों यानि आम और बबूल के गाँव में है जो उसकी समतामूलक दृष्टि को प्रदर्शित करती है-
नीम की छाँव/आम और बबूल/दोनों के गाँव!
डॉक्टर इस कलियुग में भगवान के जैसे माने जाते हैं जिसे उन्होंने कोरोना काल में दिखाया भी है। आज ई.एम.आई. के दौर में जब कर्ज़ हावी है हॉस्पीटल और उपकरण क्रय करने में; तब उसके चुकारा के लिए मरीजों की जेब की ओर निहारा जाने लगा है जो इस व्यवस्था को कलंकित करता है। ऐसी ही नकरात्मता के भाव को दर्शाता हुआ ये हाइकु दृष्टव्य है-
काँटे-सी चुभे/जेब पै दृष्टि तेरी/पीर क्यों घटे !
इन्द्र बेचता/दधीच की हड्डियाँ..../डॉलर पाता !
यादें हर किसी की अमानत हैं जो हमें अनायास ही अपनी दुनिया में खींचकर सुख-दुःख का अहसास ज़िंदा कर देती हैं। यादें,अकेलेपन की दोस्त हैं जो हमारी धरोहर होती हैं। हाइकु में यादों के भाव को पिरोना यानि इसे सहेजना ही है-
कभी तुम थे/आज तुम्हारी यादें/स्वप्न हमारे !
आग बरसी /झुलसी कल्पनाएँ/बचीं वो यादें !
प्रकृति के पास सौंदर्य का अकूत खज़ाना है उसे अनुभूत करने और शब्दांकित करने का माद्दा सभी विधाओं में मौजूद है लेकिन हाइकु की लघुता उसमें चार चाँद लगा देती है। आपके हाइकु में मानवीयकरण है तथा इसके बिम्ब का चयन सर्वथा नवीन है-
ताल-तलैया/वर्षा की मार खा-खा/उफने भैया !
गुलाब खिला/आँगन में सूरज/ठुमुक रहा।
खिले चाँदनी/गमलों में नभ के/बिहँसे घनी !
घूमता शीत/ले हाथ में बन्दूक/काँपती धूप !
सूरज झुका/अँजुरी भर पानी/नदी का पिया।
प्रदूषण से संपूर्ण विश्व त्राहिमाम कर तो रहा है लेकिन इससे बचने के लिए वह आधुनिक विकास का चोला पहने हुए है। प्रकृति के पास बदला लेने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है। प्रदूषण विविध रुपों में हमें हानि पहुँचा रही है लेकिन इंसान इससे बचने की सोचता कहाँ है? प्रदूषणों के हाहाकार को दर्शाते हुए ये हाइकु अच्छे हैं-
वर्षा के हाथ/तेजाब भरा ज़ाम/पौधों के नाम।
वन की आग !/बुझाने आये इसे/जल कहाँ से !
रेत ही रेत /और एक नदी है?स्वप्न या सच !
डर का बाज़ारीकरण और इस हेतु तैयार उत्पादों के विज्ञापन में फँसा व्यक्ति इससे उबरने की जुगत में कितना सफल और कितना असफल होता है यह उसकी अपनी कूबत होती है। डर सदैव से खौफ़नाक रहा है और इसकी आड़ में जीवन का संघर्ष और सत्ता की बुनियाद रखी जाती रही है। वर्तमान समय में डर सर्वत्र विद्यमान है तब ये हाइकु समीचीन लगते हैं-
फूल भी जब/बम-सा है दिखता/जग हिलता।
आँखों में भरा/झरता रहा डर/कितना सहा।
युद्ध के वैश्वीकरण और सीमाओं तथा व्यापार के अंधे लोभ ने ना तो बस्ती देखी ना जंगल, बच्चे देखे ना मानवता सब नष्ट करके विजेता जैसा सत्ता सुख भोगने की चाह को बलवती बना दिया है। युद्ध का कोई नतीजा नहीं होता बल्कि यह बदले की बीज बोकर एक और युद्ध को पालता-पोषता है ऐसे ही भावों को पुष्ट करते हैं ये हाइकु-
आग तू जला/और हवा भी बहा/नतीजा बता !
बोयी जाती है /बीज में आग जब/होता है युद्ध !
विषय वैविध्य और अनुपम बिम्ब का प्रयोग आपके हाइकु को स्थापित करते हैं। यह आपका प्रथम हाइकु संग्रह है जो आपकी संभावनाओं को दर्ज़ करती हैं। यह हाइकु आपके भीतर की समतामूलक भाव को व्यक्त करती है कि किसी भी स्थिति में प्रेम का दामन नहीं छोड़ना चाहिए-
प्रेम न सही/प्रेमियों की तरह/मिलो तो कहीं !
मेरी शुभकामनाएँ
रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़
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चूँ चूँ चिरैया-हाइकु संग्रह, उमेश महादोषी
ISBN:978-93-341-0141-6
प्रकाशन-स्वयं 2024, मूल्य-100₹, पृष्ठ-88
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