खिड़की-कविता

खिड़की


खिड़कियों के खुलने से दिखता है-

दूर तक हरे-भरे खेतों में

पगडंडी पर बैलों को हकालता बुधारु

काकभगोड़ा के साथ सेल्फी लेता हुआ

बुधारु का 'टूरा' समारु 

दूर काली सड़कों को रौंदते हुए 

दहाड़ती शहरी गाड़ियों के काफ़िले

सामने पीपल पर बतियाती हुई

मैना की जोड़ी और 

इसकी ठंडी छाया में सुस्ताते कुत्ते।


खिड़की को नहीं दिखता-

पनिहारिन का दर्द 

मज़दूरों के छाले 

किसानों के सपने 

महाजनों के पेट की गहराई

निठल्ली युवा पीढ़ी की बढ़ती जमात 

बाज़ार की लार टपकाती जीभ 

कर्ज़ में डूब रहे लोगों की चिंता और

अनजानी चीखों का वह रहस्य 

जो जाने किधर से रोज उठती है और

जाने किधर रोज दब भी जाती है। 


खिड़की जो मन की खुले तो 

देख पाती हैं औरतें भी-

आज कहाँ 'बुता' में जाना ठीक है 

किसका घर कल रात जुए की भेंट चढ़ा 

किसके घर को निगल रही है-शराब 

किसका चाल-चलन ठीक नहीं है

समारी की पीठ का 'लोर' क्या कहता है; 

सिसक कर कह देती हैं वे-

'कोनो जनम मं झन मिलय

कोनो ल अइसन जोड़ीदार' । 


बंद खिड़की में उग आते हैं-

क्रोध-घृणा की घाँस-फूस 

हिंसा की बदबूदार चिम्मट काई 

रिश्तों को चाटती दीमक और 

दुःख की सीलन 

इन दिनों खिड़की खुले रखने का वक़्त है

आँख,नाक,कान के अलावा 

दिल की खिड़की भी खुली हो ताकि

दया,प्रेम,करुणा और सौहाद्र की 

ताजी बयार से हम सब सराबोर हो सकें ।

…..


रमेश कुमार सोनी

रायपुर,छत्तीसगढ़


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