समीक्षा-गुरतुर मया


हाइकु बर छत्तीसगढ़ी के गुरतुर मया 
      हाइकु हर जापानी साहित्य के एक ठन विधा होथे तउन ला हिंदी हर घलो अपनाए हे। हाइकु ल 5,7,5 यानि कुल 17 वर्ण के तीन डांड़ म लिखे जाथे। एखर मुख्य विषय प्रकृति हवय फेर अब लोकजीवन के जम्मो विषय ल हाइकु हर रपोट डारे हवय। हाइकु ह निचट कविता आय,एमा कविता के जम्मो गुण होना चाहि; इही उदिम ल अब छत्तीसगढ़िया मन बने सुग्घर मन ले लिखथें ताकि हमर भाखा ह झन पिछुवाय। हाइकु ल कतको अनजान मन अइसने गलत लिखथें-हाईकू, हाईकु,हाइकू; एला सुधार के लिखना हे-हाइकु। 
      छत्तीसगढ़ म हाइकु के ज्यादा सोर नई हे फेर ए दारी ले हिंदी हाइकु के देखा-देखी नवा जुन्ना लेखक मन लिखे के कोसिस करथें। ए दृष्टि ले ‘गुरतुर मया’ हर जम्मो झन ल रद्दा देखाहि  कि हाइकु ल कइसे रचे जाय; खाली तीन डांड़ म कुछु लिख देले ओहर हाइकु नइ हो जाय। ‘गुरतुर मया’ हर रमेश कुमार सोनी बसना वाले के पहिली छत्तीसगढ़ी हाइकु संगरह आय। आप मन छत्तीसगढ़ म हिंदी के पहिली हाइकुकार होथें अउ आपके पुस्तक-‘रोली अक्षत’ हर छत्तीसगढ़ के पहिली हिंदी हाइकु संगरह होथे।
      छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग-रायपुर के सहयोग ले प्रकाशित हाइकु संगरह ‘गुरतुर मया’ मोला पढ़े बर मिलिस; ए संगरह म 368 छत्तीसगढ़ी हाइकु हवय जउन हर ए सात भाग म खंड़ाय हे-1 सोनहा बिहान, 2 धान के कटोरा, 3 मोर मयारू, 4 रिस्ता-नता के झाँपी, 5 हमर चिन्हारी, 6 माटी के कुरिया अउ 7 मिंझराहा। पहिली बेर अइसन हाइकु छत्तीसगढ़ी म रचाए हे जेखर शैली ह उत्कृष्ट हे, भाव पक्ष परघट दिखथे अउ काव्य शैली ह हमर छत्तीसगढ़ के जम्मो चिन्हारी ल सकेले हें।
        हाइकु विधा के अंतस म प्रकृति के वर्णन ह ममहात रहिथे काबर की हमर जिनगी के डोर उहेंच्च बंधाय हवय। प्रकृति के कतको रूप हर हमर मन ल मथके मया के करमा-ददरिया सुनाथे, हमर उछाह अउ जिनगी जीये के तैयारी म रंग घलो भरथे। हमन प्रकृति ले अलग होय के सोच नई सकन फेर हमर लालच हर हमर बर जीव के काल होगे हे। आपके हाइकु ह प्रकृति के सुग्घर रूप ल निहारत खड़े हवय जईसे कि पुस के हवा अँगना म छरा देवथे,सावन के बादर ह कोंवर कँवरिहा हे,जाड़ म कोलिहा के भुर्री खोजई...अउ नवा बिहान के पहिली किरन ह लईका कस होथे भुईयाँ म रेंगे ल सीखत गिरथे त दूबी ह ओला झोंकथे वाह अद्भुत दृश्यांकन हे-    
हवा गरु हे/कोंवर कँवरिहा/करा बोहे हे।
ओस के छरा/बिहान बेरा देथे/पुस के हवा।
पोटारे बर/रुख-ढेखरा होगे!/कोंवर नार। 
पुस के जाड़ /गोरसी के मितानी/ठट्ठा सुनथें।      नवा बिहान/घाम रेंगे सीखथे/दूबी झोंकथे।         
      कोनो रचनाकार ल चाहि की ओखर रचना म अतेक दम होय कि ओहर बिना कोनो ले डेर्राय बेवस्था के खिलाफ प्रश्न पूछ सकय। प्रस्तुत हाइकु ह इहाँ वर्तमान समय के समाज में फैले विसंगति ल फ़रिया के केहे बर नई लजाथे। ए हाइकु मन नोनी के संसो, दाईज के पीरा, डोकरी दाई के चिंता,......अउ बैपारी के बनाय समाज में, हिंसा के आघु म छाती उघारे प्रश्न पूछत खड़े हे। जिनगी ह कईसनो तो चलबेच्च करही फेर मर -मर के जियई ह ए हाइकु ल नई सुहावय-     
करा गिरीस/करजा ह जामही/जम्मो के खेत।
माँ-लिखथे जी/बिन दाई के नोनी/सिल्हेट रोथे।
नून नापथे/खोईला ले महुआ/बड़े बैपारी।
गोला-बंदूक/बस्तरिहा काँपय/लहू बोहाथे।

      आपके हाइकु ह नवा ज़माना के हवा ले बाँचे नई पाए हे तेखरे सेती आप मन ए बात ल जम्मो समाज के आघु म दर्पन कस फरिया के रख दे हवव। सबे जानथें कि मोबाइल ह काम बुता के सउत हो गेहे, ऊपर ले चिरहा पहिर के खेत ल अधिया म देना अउ बोनस ल पूरा डकार देना ए जम्मो बेमारी ह हमन ल कहाँ ले जाहि ठिकाना नई हे। आवव ए हाइकु ल गुनन-
मुड़ी गड़ाव/मोबाइल के बुता/खेत परिया।
खेत-अधिया/आधा पेट खाबे का?/बोनस पूरा!
नवा बेमारी/चिरहा पहिरना/काय लुकाबे?

        आपके ये हाइकु ह आपके रचनाकार मन डाहर ले स्वाभाविक रूप ले उपजे हे काबर कि एहर समाज ल दिशा देखाय बर जरुरी घलो होथे कि सुझाव दे जाए। जाने बर सब जानथें कि माटी ल नई लेसना हे फेर बारथें, पहिलांवत लइका कोनो होय स्वीकारना चाहि तभे नोनी बर मया रइही अउ दुःख के बेरा कब आही कोनो नई जानंय एखर बर कनिहा कस के रहना चाहि। शब्द ल आप मन बड़े जतन ले बुने हवव अउ एला बीने म सावधानी के संगे-संग अपन अनुभूति ल विस्तार दे हवव इही ह ए हाइकु ल पोठ बनाए हे।       
माटी भूँजाथे/पैरा झन बारव/कोरा लेसाही।
नवा बिहाती/कोख झन उजार/खुसी जन्मही।

      आप मन के हाइकु ह बीच-बीच म चेतावत घलो रेंगथे कि ए ज़माना ह कईसे बिगड़े हे, दृश्य ल चिन्ह के अउ छाँट के हाइकु के पंगत म बइठारे हवंय। जइसे फूल म काँटा के पहरा होथे तइसने नवा नोनी मन ल घलो दुइज के चंदा बरोबर हँसिया होना चाही अउ रेंगत बेरी अपन सांटी ल बजात रेंगय। ए हाइकु ह जम्मो ल सावचेत करथे इही एखर सुन्दरता हे-  
दुइज-चन्दा/हँसिया धरे आथे/कोन छेड़ही।
फूल-गुलाब/भौंरा-छुए डेराथे/काँटा-पहरा।
रद्दा टेड़गा/साँटी बजात रेंग/जम्मो बइरी।

      जापानी साहित्य के विधा हाइकु म पहिली बेर हमन अपन छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति की महक,  संस्कृति ,कर्म के महात्म ल पढ़े बर मिलिस। छत्तीसगढ़ी के कतको अन्य विधा म ए सब हर सकलाय हे फेर अतेक नानचुन रूप ह मन ल मोहथे। छत्तीसगढ़ के रात ह चाँदी अउ दिन ह सोनहा हे, अक्ति के बिहाव, धान रोपत दाई महतारी के सोहर गाना.....अउ माँझा खोल के कका के ढेरा आँटना; ए सब हमर रोजी-रोजगार ले जुड़े हे। जब तक कोनो साहित्य ह अपन जिनगी ले नई जुड़ही तब तक ओला चिन्हारी नई मिलय, आवव ए हाइकु संग हमु मन अपन जिनगी ल आँट लन-
धान रोपथें/रिंगी-चिंगी लुगरा/अँजोर होही। 
जरई फूटे/सोहर गाथे काकी/खेत बाढ़य। 
रात हे चाँदी/बिहान सोनहा हे/जाँगर घर। 
ढेरा घुमथे/माची गाँथही कका/जिनगी आँटे ।

      हाइकु काव्य म मानवीयकरण ल बने माने जाथे, आपके ए हाइकु म एहर देखे बर कई जगह मिलथे। संझौती ल मयारू के झुँझकुर चुँदी कहना, चिरई ल खेत के सीला बिनाइया लइका कहना अउ  सड़क के रुख-राई  के डोलना ल समधी भेंट कहना...... ए सब वर्णन ह एखर सुन्दरता आय। जब तक प्रकृति ल हमन अपन आप ले नई जोड़थन तब तक हमन ओखर ले दुरिहा रहिथन। हमर प्रकृति हर हमर बर नंगत ले कष्ट सहिथे तभे तो हमन एला अपन रिश्ता-नता कस घलो मानथन। 
मोर संझौती/झुँझकुर चुँदी हे/दिया-अँजोर।      लुआई देखे/चिरैया मन आथें/सीला बीनथें। 
छीन के पेड़/गौंटिया-अकड़े हे!/छैंहा भूला जा!
पत्ता झरगे/नागा बाबा खड़े हे/माला जपत।                 
      आपके ए हाइकु म अंतस के पीरा हे अउ सवाल करथे, चिंता घलो करथें कि गाय के पेट ल घुरुवा कोन बनाइस?, हमर बारी के जाँगर ल रउंदे बर बेंदरा काबर आथे? अउ हमर गाँव ल कोन ह नसेड़ी बनावथे? अइसने कतको अकन संसो ह जम्मो झन ल जोरे के अगोरा म ठाड़े हे। ए हाइकु ह अपन जगह म पोठ भाव ल पोगरी करे हें,आवव एला हमन गुनन-    
गाय के पेट/प्लास्टिक के कचरा/घुरुवा होगे।
हाथी-बेंदरा/जाँगर रउँदथें/बारी-बखरी।
कोन बोईस?/गाँव मं गाँजा-भाँग/बंदूक आथे।

        छत्तीसगढ़ के हर गाँव-मोहल्ला म रिस्ता गूँजथे, डाहर चलती एखरे अनुसार पैलगी अउ आशीर्वाद बोहात रहिथे रिस्ता के सुघ्घरता ह घर ल घर बनाथे अउ कोन्हों उत्सव के बेरा ल नंगत के कहिनी घलो बना देथे, ननंद अउ भउजी कोन जानि काय बोलथें कोनो नई जान सकंय, काजर आँजें के बेरा म फुफु हर नेंग बर रिसाबेच्च करथे, नवा बहु जब घर आथे तब घरो घर बैना घलो बँटथे अउ बिहाव नाचे के बेरा म ढेंड़हा ह आघु होथे काबर की ओहर नेंग म सोन के मुंदरी पाहि। ए जम्मो हाइकु ह हमर रिस्ता म नकारात्मकता ले बचाए के उदिम ल देखावथे-  
काला हाँसथें?/ननंद ‘औ’ भउजी/अबूझ बोली।
कोरा हाँसथे/काजर आँजें फुफु/नेंग रिसाय।
बैना बँटथे/घर अँजोर होगे/बहू के सोर।
ढेंड़हा खुस/नेंग के मुंदरी मं/नाच बेंदरा।

         छत्तीसगढ़ के सभ्यता-संस्कृति ह धान के कटोरा म बगबग ले दिखथे चाहे ओहर तीजा-पोरा के ठेठरी-खुरमी के संग बहिनी-बेटी के अगोरा होय, हरबोलावा के उठ बिहाने भजन गाना होय, जय गंगान के धुन सुनाना होय, हरेली के खुसी म गेड़ी रेंगाना होय, अपन गोसांई/भगवान के गोदना गोदवाना होय, फुगड़ी के मस्ती होय, दफड़ा-मोहरी के बाजे ले गाँठ जोरई होय, ठेठवार घर बरवाही के अगोरा होय, कबीर पंथ के उज्जर चौका माढ़े होय चाहे शबरी के विस्वास होय ए जम्मो ल एके संग म अपन हाइकु में आपमन लिखके अमर बना दे हवव। भुलौती बात ल बचाय के गोहार हमर निसानी मन ल सुग्घर बुता ले संघराय के संदेस देवथें। ए विधा के द्वारा अब दुनिया हमर छत्तीसगढ़ ल चिन्ह्ही अउ हमर सोर हर दुनिया म ममहाही। आवव अइसने भाव वाले ए हाइकु के सुन्दरता ल बाँचन-
बादर लाथे/तिजहा के लुगरा/भुइयाँ जामे।
मया के गीत/चिरईय्या-बिहान/जय गंगान। 
हरेली पूजे/बियासी के नांगर/गाँव मताय।
कबीर चोला/का तोर,का मोर हे?/इँहें छूटही।
फुगड़ी खेले/बहुरिया मताय/सऊँक जीते।
ठट्ठा-दिल्लगी/दफड़ा-मोहरी के/गाँठ जोरही।

        छत्तीसगढ़ म सुख-दुःख के गोठ-बात ह मनखेपन के निसानी आय, ए हर हमर मनके रग-रग म बसे हे तभे हमन जम्मो के सुख म खुसी मनाथन अउ दुःख म संगे-संग ठाड़े रहिथन। ए बात ह चलतेच रहिथे चाहे रेंगत बुलत होंय, परछी म बइठे होंय, काम बुता के बेरा होय के तरिया के घाट-घटौंदा होय। चार दिन के जिनगी में सुख-दुःख ह लगेच्च रहिथे एला बने करके बउरे बर चाही काबर कि सुख हर मड़ई कस एक दिन म उसल जाथे फेर दुःख हर काई बरोबर माढ़ जाथे। ए हाइकु म इही बात ह चमचम ले बगरे हे हाइकुकार रमेश सोनी हर हमर परंपरा ल पुन्नी के चंदा अईसन बगरा देहें। आपमन इहाँ जउन दृश्य ल रचे हव ओहर परघट ले हमर अंतस ले हो के रेंगथे; आवव ए हाइकु के भाव अउ इनखर शब्द के महिमा ल अपन जिनगी के कोला-बारी म झाँक के देख लन-
जग के मेला/खुसी के फुटु फरे/दुःख बिसोही!
सुख बरोड़ा/तुरते नाहकथे/दुःख जामथे।
चढ़े-उतरे/सुख-दुःख निसैनी/जिनगी नापे।
सुख के नार/दुःख-ढेखरा हाँसे/खुसी फरही। 

      मया-दुलार के अँजोर चारों मुड़ा म बगरे हे जउन म रिस्ता-नता के डोरी ह अरझे हे जइसे कोनो ओला ढेरा म बाँध के आँट देहे,जउन हर कभू ले नइ छतराय फेर बिपत बेरा म संगे-संग ठाढ़े रहिथें। मया के रिस्ता के इहाँ कतको नांव हवय-जंवारा, महापरसाद, सहीनांव, जोही, गियाँ,...अउ भोजली जउन हर कोनो संस्कृति म देखउल नइ हे, एखरे सेती कोनो होय इहाँ के मया ल पा लेथें। मया के ददरिया सुनत मयारु ह जब अपन फुंदरा ल घुमात रेंहचुली झुलही तब मया के बंरोड़ा म अइसने हाइकु के सिरजन होथे-      
जोही रेंगय/अंधरौटी हो जाथे/मया बंरोड़ा।
तोर मुंदरी/ददरिया सुनाथे/मया सुरता।
छत मं गियां/चन्दा सहीं दिखथे/उज्जर मया।
जदुहा आँखी/मउहा कस नसा/उतारा कहाँ?
रेंहचुली हे/मयारु के फुंदरा/मया घुमाथे।
होत संझौती/आगि माँगे जँवारा/आगि लगाके।  

      रमेश कुमार सोनी के हाइकु में कविता के जम्मो गुण ह गुरतुरहा जनाथे, शब्द हर पोठ गुँथाय हे अउ भाव के चासनी म लपटाय हे। ए हाइकु के दृश्य ह पाठक के आघु म खुलथे अउ उनखर अंतस ल दही अइसन बिलो देथे। आपके हाइकु में भाव के सघनता हे अउ संवेदना के प्रकटीकरण हर एक ठन उदहारण बने हे।
‘गुरतुर मया’ बर मोर डाहर ले आप मन ला गाड़ा-गाड़ा बधाई हे, ए संगरह के मया ह चारों मुड़ा म बगरत रहय। नवा लेखक मन बर संदेस हे कि ए शोध ग्रन्थ ल अधार मानके बनेच्च सोरिया के लिखयँ ताकि हमर छत्तीसगढ़ी भाखा ह अउ पोठ हो सकय। 
 समीक्षक-
डॉ. लोकेश्वर प्रसाद सिन्हा
(सहायक प्राध्यापक)
दुर्गा महाविद्यालय-रायपुर 
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गुरतुर मया’-छत्तीसगढ़ी हाइकु संगरह ; हाइकुकार-रमेश कुमार सोनी
श्वेतांशु प्रकाशन दिल्ली , सन-2021, मूल्य- 250/-रु.  ISBN: 978-93-91437-42-8
भूमिका-डॉ.चंद्रशेखर सिंह, विभागाध्यक्ष शास.महाविद्यालय -मुंगेली (छ.ग.)
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