कविता


 










गुड़हल

 

गुड़हल को सींचते हुए कई दिन बीते

एक दिन उसने मुझे भेंट किया

एक लाल फूल

जैसे मिलती है किश्त

एक विधवा पेंशन की,

मैंने इसमें अपने श्रम का रक्त देखा

इसे उगाने की जिद का हरापन देखा

इस तरह हरे से लाल होती प्रकृति देखी.

गुड़हल इस बात से अनजान है कि-

अफगान,सीरिया और कश्मीर क्या सोचता होगा?

बंगाल क्या कर रहा होगा?

विस्थापितों की बस्ती में भी यह खुश है!

इसे नहीं लगना पड़ता लाइन में-

नागरिकता और शरण पाने की;

गुड़हल ठठाकर हँस रहा है

तमाम हंगामे के बीच.

इसे उगाते हुए मैंने कहाँ सोचा था कि-

इसे तोड़ लेंगी कुछ शक्तिशाली चूड़ियाँ

अपनी सौतन मानकर!

या कोई चुराकर ले जाएगा इस जलन में कि

ये सुन्दरता आपके आँगन में हमें चुभती है!

गोया यह गुड़हल ना हुआ

कोई विवादित देश हो गया

जिस पर घात लगाए बैठा हो -

चीन,अमेरिका,रूस और...,

मैं हूँ कि इसे रोज सींचता हूँ

विश्वबंधुत्व की राग अलापने

दूर बैठा सूर्य एक महाजन जैसा है

वह तौल रहा है सभी पक्ष को

यह चुप हो जाता है

आँखे तरेरने वाली हवेलियों से.

इस बार मैंने बाड़ लगाकर चेता दिया है कि-

गुड़हल तुम फूलने की पहले सूचना दोगे

देवकी चुप है

यहाँ मैं कंस होना चाहता हूँ

मुझे कोई दिलचस्पी नहीं कि

कौन सा फूल आठवाँ होगा

मैं ऐसे किसी भविष्यवाणी से भी नहीं डरता

मैंने कल की चिंता को

सत्ता के पास लॉकर में रखवा दिया है

गुड़हल मुस्कुराकर चुप हो गया है

चौकीदारी में तैनात हैं

तितली और भौंरों की सेना

धूप बुनती हुई मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा

क्या कहता है तुम्हारा गुड़हल?

देखो ये श्वेटर तुममें कैसे फबेगा?

मैं इन रंगों को पाल रहा हूँ

ताकि सनद रहे वक्त पर काम आए.

.....

 

 


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