समीक्षा-सुख राई-सा,दुःख के परबत


 

अनुभवों का सदाबहार साहित्यिक गुलदस्ता-

                 1986 से लेकर अब तक डॉ. सुधा गुप्ता जी के साहित्यिक जीवन ने हिंदी साहित्य को 20अनमोल साहित्यिक भेंट दिए हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए धरोहर हैं और सदियों तक ये हम सबका सक्रिय मार्गदर्शन करती रही हैं. उम्र के इस पड़ाव (86 वर्ष) में भी आपकी लगन की प्रशंसा करनी होगी कि आपने यह संग्रह अपनी हस्तलिपि में हम सबको भेंट दिया है-साधुवाद. जापानी साहित्य विधाओं की अग्रगण्य वरिष्ठतम साहित्यकार के रूप में आपकी एक विशिष्ट पहचान है जिनके बनाए राह पर इन दिनों कईयों संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं. आपके अनुसार यह संग्रह ‘सुख राई-सा,दुःख के परबत’-आपके साहित्यिक समय के लेखा-जोखा में से एक है इसका सदैव स्वागत किया जाएगा.

               डॉ.सुधा गुप्ता को प्रकृति की  सिद्धहस्त रचियता कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है क्योंकि आपने प्रकृति को जितने करीब से देखा-जाना है उतने ही करीने से आपने उसे मातृवत सँवारा है-अपनी इस साहित्यिक बगिया को. प्रकृति को देखना,समझना और बात है लेकिन उसकी ही भाषा में साहित्य को रचना और बात है, यही खूबी आपको सबसे अलग बनाए रखती है. आपने अपने जीवन के कई पड़ाव देखे और उनसे नज़रें मिलाकर इतिहास रचते गयीं,यही वक्त अब आपकी सहचरी बनी हुई है.

              यह संग्रह ‘भागवत रचना खंड से आरम्भ होती है जहाँ प्रार्थना के साथ प्रकृति का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर हो रहा है. इस खंड में एक ओर प्रकृति की कोमलता और करुणा है वहीं ईश्वर की भक्ति में वे लीन भी दिखाई देते हैं, यूँ कह लूँ कि ये हाइकु भजन करते हुए प्रस्तुत हुए हैं-

आकंठ डूबी/प्रार्थना में पृथिवी/छेड़ना नहीं.

वृंत पे झुका/सद्यः खिला सुमन/प्रभु-अर्पित.

              इस जगत में मौसम के जादू से सभी प्रभावित हुए हैं लेकिन इनकी जादू का सम्मोहन रचनाकारों पर नहीं चल पाता क्योंकि ये अपनी बेरुखी के चलते प्रायः कोसे जाते तो हैं लेकिन सुन्दरता जताने में कंजूसी दिखा जाते हैं. इन सबसे अलग डॉ.सुधा गुप्ता जी की लेखनी बिंदास इन मौसमों की हर आहट को रच देती है मानो आप इनकी भाषा से वाकिफ हों. वसंत तो ऋतुराज हैं ही इसकी शोखियों के तमाम किस्से यहाँ हाइकु बने मुस्कुरा रहे हैं-

हवा के कानों/चैत फुसफुसाया/लो,मैं आ गया.

खिले गुलाब/चहकी बुलबुल/प्रणय-गीत.

शोख तितली/फूलों से छेड़खानी/करती फिरे.

पाहून आया/ख़ुशी से लबालब/झूमी धरती.

भोर वासंती/अरुणिम साड़ी में/सुवर्ण बिंदी.

वाक्देवी उषा/रचती अनुष्टुप/स्वर्णाक्षरों में.

शैतान पत्ते/मुड़-मुड़ भागते/हल्कान हवा.

            ग्रीष्म की तपिश का आनंद जहाँ बच्चे अपनी छुट्टियों के साथ लेते हैं वहीं इसकी अपनी नागिन सी लू की लपटें मौतों का आँकड़ा गिनते रहती है;पानी उड़ चुकी है-विदेश यात्रा में, तभी तकलीफों के साए में ऐसे हाइकु अनायास ही रचे जाते हैं. इनकी सुन्दरता इस बात पर निर्भर करती है कि इस ग्रीष्म को किसने कितने करीब से भोगा है.

बरसे कोड़े/जीव कराह उठे/जेठ न माने.

फूलों से लदी/गीतों से गुलजार/अनार-झाड़ी.

राहत देता/नीरव दोपहरी/पंडुक-स्वर.

           पावस खंड में आपने अपना पूरा स्नेह मेघों और धरा के साथ वर्षा की बूँदों को भी बाँटा है,इस खंड की मस्ती ने हम सबका ध्यान खींचा है. यहाँ जुगनू की कतारें हैं, मेघों का क्रोध है, पहाड़ों के नदियों की विदाई का गीत है, सावन की फुहार है,और ज़ख्मी गौरैया भी है.आइए हम भी इन हाइकु की मासूम फुहारों में भीगें-

घूमें परियाँ/रिमझिम बुंदियाँ/हँसी-फुहार.

बाँहें पसार/सागौन बुला रहे/हरी हथेली.

देख बादल/मोर बनके नाची/धरा की मस्ती.     

 कौंधी दामिनी/सतरंगी साड़ी में/वर्षा-कामिनी. 

सोना खिलौना/पनघट पे आया/घिरीं गोपियाँ.

घटा साँवरी/कान्हा रंग डूबी है/प्रेम बावरी. 

            हेमंत की ठिठुरन से बचना हर कोई चाहता है लेकिन वे ये भी चाहते हैं कि कड़ाके की शीत न बरसे,ओस की बूँदों पर सैर करें,रंगीन गर्म कपड़ों में सर्दी की शामें गुजारें. इस दौरान प्रकृति की आभा को आपने कुछ इस तरह अपने हाइकु में आपने पिरोया है कि वाह-वाह कहे बिना मन मानता ही नहीं-

भीगी पड़ी थी/सूरज ने सुखाई/हरी चुनरी.

चंदनी काया/पीताम्बरी वैष्णवी/पौष की धूप.

कोहरे राजा/लाए काला कानून/मचा अंधेर!

धूप सेंकती/पंख फुलाए फाख्ता/बैठी मुँडेर.

            साँझ में समुद्र को निहारने के सौन्दर्य को इस तरह आपने शब्द दिए हैं- सलोनी साँझ सागर संग झाँझर बजा रही है,लाल लहँगा पहनी लहरें झूम रही हैं.... .

‘नजरलगी/लाल से काली हुई/साँझ बेचारी.

घोला गुलाल/शरारती शाम ने/सागर लाल.

           जब कोई व्यक्ति अपनी जिंदगी के शांत दिनों की याद करता है या उसे बिताता है तो उसके साथ उसकी सहचरी के रूप में साहित्य जरूर होना चाहिए अन्यथा वह असहाय सा महसूस करने लगता है. जीवन में सुख-दुःख की कथाएँ संग-संग ही चलती हैं और अंततः उकता कर सभी मुक्ति की कामना करने लगते हैं;यह अवस्था बहुधा पछतावा लेकर ज्यादा घुमाते रहती है. यहीं कोई भी अपनी अभिव्यक्ति के कागजों को रंग देकर विश्रांति को प्राप्त होते हैं..

काग़ज़-कश्ती/पहाड़-व्यथा ढोते/चलती जाती.

माटी हो जा/खिलेगा एक दिन/बन गुलाब.

सुख राई-सा/दुःख के परबत/ढोए जीवन.

दुःख ने माँजा/आँसू-जल ने धोया/उजला मन!

अहं की कारा/भीतर से साँकल/खुले तो मुक्ति.

            सुखों की बातों से किसका जी भरा है भला इसलिए ही यह समय जल्दी ही कट जाता है. इसी सुन्दर समय को इन हाइकु ने अपने अंक में समेटा हुआ है.

तुम जो मिले/लगे सुखों के मेले/टूटे झमेले.

सौम्य स्पर्श था/तुम्हारी हथेली का/जो जिला देता!

तुम्हारी छवि/लेकर खिल उठी/गुलाब कली.

            मानव जनित विकास की आँधी ने इस वसुधा का जितना विनाश किया है इसकी भरपाई कई जन्मों तक भी नहीं की जा सकती. इंसानी लोभ से उपजे अंधाधुंध दोहन का खामियाजा हमें प्रदूषणकारी समस्याओं से निपटने में लगता है.ऐसे ही कुछ हाइकु पर्यावरण की रक्षा हेतु साहित्य की शरण में हैं,आइए इनकी पुकार सुनें-

गोरी नदिया/मानव दुष्कर्म ने/कर दी काली.

विकास आँधी/घायल है चाँदनी/रो रही सृष्टि.

            इस दुनिया में सब कुछ एक जैसा नहीं है विविधता ही हमारी पहचान है चाहे वह प्रकृति ही क्यों न हो ऐसे में विविध विषयों के रंग लिए हाइकु यहाँ प्रकट हुए हैं-अपने संदेशों के साथ, आइए इनका स्वागत करें-

दूर्वा झुकी थी/जाते ही तूफ़ान के/लहरा हँसी.

मंदिर द्वारे/पीपल चुन्नी बाँध/भक्त तो गए.

गुजरे राही/अकेली है सड़क/रौंदी,कुचली.

भागती रेल/साथ दौड़ते तारे/राही अकेला.

          कुछ बातें जीवन की राह में हमे कचोटती हैं तो कुछ उत्साहित कर जाती हैं लेकिन जब कभी ये गले पड़ती है तो हमें यह झमेला बोझ सा लगता है. इस राह में इश्क है,रिश्तेदारी है,बुढ़ापा है....और इहलीला न त्यागने की जिद है.                      

जरा निगोड़ी/आँख,कान गायब/घर का बोझ.

कहीं न छाँव/बड़ी नाइंसाफी है/प्रीत के गाँव.

कुटुम्बी जन/ईर्ष्या की खेती करें/हँसे या रोएँ.

           कोई भी विधा अनुभवों के साथ पककर मीठी होती है उसमें गुरुत्व बढ़ता है तथा उसमें शक्ति आ जाती है कि वह अब नवलेखकों की राह प्रशस्त कर सके ऐसी ही हैं-डॉ.सुधा गुप्ता जी जिनके वृहत अध्ययन और साहित्य सेवा ने आज हमारा  कार्य आसन किया है कि-हिंदी हाइकु में क्या होना? और क्या नहीं होना? और किस राह पर चलना  है. जिन दिनों आपने लिखना आरम्भ किया उन दिनों इन विधाओं की स्वीकार्यता न्यून थी जिसे आपकी लगन और मेहनत ने उत्कर्ष पर पहुँचाया है तभी तो आप कह उठती हैं-

प्रभु ने सौंपा/जो कार्य,पूर्ण हुआ/अब विदा लो.

आपके इस संग्रह की आपको बधाई एवं उत्तम स्वास्थ्य की मंगल कामनाएँ, ईश्वर करे आपका आशीर्वाद यूँ ही हमें मिलता रहे. हम सभी को यह संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि हम अपनी लेखनी को माँज सकें.

होली-2021

रमेश कुमार सोनी-रायपुर,छत्तीसगढ़

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सुख राई-सा,दुःख के परबत-हाइकु संग्रह,डॉ.सुधा गुप्ता-मेरठ

प्रकाशक-पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान-मेरठ,उत्तरप्रदेश,सन-2020

मूल्य-380/-Rs.,  पृष्ठ-49 ISBN NO.-978-81-935754-2-0

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2 comments:

  1. सुन्दर, सारगर्भित समीक्षा!
    आदरणीया दीदी एवं आपको हार्दिक बधाई, नमन।

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  2. धन्यवाद जी ,सादर नमन .

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