समीक्षा-काँच सा मन,हाइकु संग्रह

                


             



जीवन के विविध रंगों को समेटे ‘काँच सा मन’

                हाइकु महज 5,7,5 वर्णों की गिनती में समेटा हुआ कोई वाक्य या वाक्यांश नहीं है यह अपने आपमें सम्पूर्ण कविता है. हिंदी साहित्य को पूरे विश्व में पँख पसारने का सबसे बड़ा माध्यम हाइकु ही है, इसने हमारे बीच की दूरियाँ कम की हैं. हाइकु सघन अनुभूतियों के क्षण विशेष की कविता है जिसमें किसी हाइकुकार के अपने भाव एवं विचार कई परिस्थितियों में उत्पन्न होते हैं जिसे वह अपने शब्दों में व्यक्त करता है. इन दिनों बहुत से हाइकु सोशल साइट पर उपलब्ध हैं जिनमें ‘हिंदी हाइकु सर्वोपरि है. हाइकु के एकल एवं सामूहिक संग्रह एवं पत्रिकाओं के विशेषांक भी प्रकाशित हो रहे हैं जो हिंदी साहित्य की श्री वृद्धि कर रहे हैं. इन दिनों हाइकु के नाम से चलने वाले सतही लेखन से मुझे बहुत कोफ़्त होती है ,ये साहित्य में सिर्फ कूड़े से ज्यादा कुछ भी नही है. नयी पीढ़ियों को इससे, भ्रमित होने से बचाना भी हमारी जिम्मेदारी है. हाइकु किसी भी अन्य रचना विधा से बहुत जटिल और साधना की विधा है यह कोई दस्तावेजी लेखन भी नहीं है. 

               मुझे भावना सक्सेना जी का हाइकु संग्रह-‘काँच सा मन पढ़ने का अवसर मिला; आपने विविध स्थानों पर रहते हुए अपनी अनुभूतियों से अपनी लेखनी को माँजा है. इस संग्रह में आपने अपने हाइकु को कुल 13 खण्डों क्रमशः-आराधन,धर्म,प्रकृति,जीवन,शक्तिस्वरूपा,प्रेरणा,रिश्ते,दुआएँ, हिंदी मेरी शान,फागुन,गाँव एवं यादें के तहत समेटा है. आपकी प्रतिभा विविध पटलों पर दृष्टिगोचर हो ही जाती थी परन्तु अब यह पुस्तकाकार हो गयी है. आपने भारत से भी बाहर सूरीनाम में रहते हुए भी हिंदी की सेवा की,अपनी मातृभाषा का विस्तार विदेशी भूमि में  किया और वर्तमान में गृह मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग में कार्यरत रहते हुए इसे सँवार रही हैं ये हम सबके लिए गर्व का विषय है.

               हाइकु का चोला प्रकृति का है आपके हाइकु में मुझे इसके अनेक रंग दिखे जो अलग- अलग भावों के साथ विविध मौसम का वर्णन करते हुए प्रस्तुत हुए हैं. इन हाइकु में प्रकृति की एक नई खुशबू है ,एक नया अंदाज़ है आपके देखने का,तभी तो आपने लिखा है- स्वेद कणों से उलझी हैं अलकें,चाँद के छूने से लहरों का शर्माना,बिना पक्षियों के पेड़ का उदास होना,बादलों की ओढ़नी,निशा की लटों पर जुगनू का सजना और पत्तो पर बूँदों का फिसलपट्टी खेलना. अद्भुत चित्रण है इन पंक्तियों में जो बरबस ही किसी पाठक को बाँध कर रखने में सक्षम है तथा उसके सम्मुख उस वर्णित दृश्य का एक ‘पेनोरमा’ प्रस्तुत करते हैं,यही इस खंड की अपनी सुन्दरता है.

थका बेचारा/साँझ को टोहे रस्ते/दिन बंजारा.

सूनी शाखों पे/फिर होंगीं कोंपल/नया सवेरा.

उदास तरु/था पाखियों का डेरा/आज अकेला.

चाँद ने छुआ/लहर उठ आई/भीगी लजाई.

ठेल अँधेरे/सरक आई फिर/धूप सलोनी.

स्वेद कणों से/उलझी हैं अलकें/बोझिल साँसें.

सजा जुगनू/उलझी लटों पर/निशा दमकी.

रूप सँवारे/बादलों की ओढ़नी/चंदा मुस्काए.

फिसले बूँदें/पत्तों से पत्तों पर/मुझे रिझाएँ.

झील दर्पण/देख रही घटाएँ/केश फैलाए.

               प्रकृति में सुन्दरतम के अलावा इंसानी करतूतों का छलावा भी है जो उसके मूलभूत ढाँचे में छेड़छाड़ करते हुए इसे प्रदूषित कर रहा है. आपके ये हाइकु इन्हीं दृश्यों को समेटे हुए प्रस्तुत हुए हैं कि-हमारी इस सुन्दर वसुधा को हमीं को बचाना है;तभी हम तमाम प्रदूषणों से राहत पा सकेंगे.

धुआँ दैत्य सा/पसरा हर ओर/लीलता साँसें.

काली सड़क/विषधर नागिन/लीले जीवन.

छप्पर नीचे/चढ़ा है दुमंजिला/सिमटी धूप.

               चार दिन की जिंदगी में जीवन का अभिनय करते हुए व्यक्ति अपने ईश्वर को सिर्फ कष्टों में स्मरण करता है और यही उसके कष्ट का बड़ा कारण बनता है. वास्तव में जब हम किसी से कोई अपेक्षा रखते हैं या जब हमारा कोई स्वप्न/इच्छा अधूरी रह जाती है तब ही वह हमारे दुःख का हेतु बनता है. कहा गया है कि-अपने ईश्वर की अराधना और स्मरण से ही इस जीवन की नैया पार लगेगी. अपने ईश्वर के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने को साहित्य में हाइकु की आत्मा के रूप में देखा जाता है. आपके हाइकु-श्याम की तलाश में पंछी बन भटक रहे हैं तो कहीं इस कोलाहल में अकेले हैं,आपने जीवन की चादर को रँगने के लिए जुलाहा बनने का सुन्दर सन्देश दिया है.

मन पंछी है/हर कण में बस/श्याम को टोहे.

बने जुलाहा/जीवन की चादर/रंग सजाए.

ये जग मेला/भीड़ कोलाहल में/मन अकेला.

               इस जिंदगी के खट्टे-मीठे अनुभवों को आपने शब्द दिया है और हाइकु के लिबास में ये अच्छे बन पड़े हैं.  हम अपनी व्यस्तताओं के साथ जिंदगी गुजारकर प्रायः कह उठते हैं कि-समय नहीं मिलता है! आज बड़ी जरुरत है कि हम सब अपनी जिंदगी के उन पलों को सँजोकर रखें चाहे वे अच्छे हों या बुरे. आपके इन हाइकु में इस जीवन का पूरा सार अन्तर्निहित है.आइए इनके साथ मिलकर दोपहर में गिट्टी खेलें,धान की कोठी में आम पकाएँ और दिन को निगलते हुए गुल्लक का मुँह देखें-

दिन के सिक्के/जिंदगी की गुल्लक/लीलती जाती.

गिट्टियों संग/अलसे दोपहर/पीपल तले.

धान की कोठी/गजब करामाती/पकाए आम.

               जीवन है तो रिश्ते हैं और उसे निभाना ही होगा वह भी बिना किसी स्वार्थ के क्योंकि व्यक्ति इन सबके साथ ही इस दुनिया में जन्मता है. व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और समाज उसके परिवार से बनता है ऐसे में अकेले आए हैं और अकेले जाएँगे का भाव यहाँ छिप जाता है. हम सबको सर्वजन हिताए के साथ काम करते हुए जीना होता है. इन रिश्तों में माँ सर्वप्रथम है उसके लिए जितना भी किया जाए कम ही होता है. रक्त सम्बन्धी रिश्ते,भावों और दोस्ती के रिश्ते हम सब यहाँ जीते हैं लेकिन जब कोई पाहुन आता है तब,घर का कोना- कोना महक उठता है इसका वर्णन इस खंड में एक नयापन लिए हुए आया है-

नर्म आँचल/धूप गुनगुनी-सी/माँ की ममता.

भावों के रिश्ते/रहते उम्र भर/टूटें स्वार्थ के.

दुआ दोस्त की/रुपहली धूप-सी/हर्षाए मन.

आहट बिन/नव पाहुन आया/खिली बगिया.

लड़े जग से/अबला है सबल/काँच-सा-मन.

          इसी जीवन में हम कब बच्चे से बड़े हुए ,जवानी बीती और बुढ़ापा आया ये सिर्फ हमारा दर्पण ही हमें बताता है लेकिन यही बात पौधे को उसके झरते हुए पत्ते बताते हैं-

देख दर्पण/आक्रांत हुआ मन/बीता यौवन.

पात पुराने/कहें एक कहानी-/बीती जवानी.

          इसी जीवन में अपनी खुशियों को बाँटने के लिए आए दिनों हमारी जेब पर डाका डालने त्यौहार आ धमकते हैं और हम ख़ुशी-ख़ुशी अपनी अंटी ढीली करके भी खुश हो लेते हैं. हम सबने जीया है होली में रंगों की मस्ती को,दीपावली में रौशनी और मिठाई बाँटने को,राखी में भाई के ताकने को और करवा चौथ में अपने प्रियतम जी को चलनी से झाँकने को... 

भंग की मस्ती/पिचकारी की धार/हँसी ठिठोली.

               जीवन की इसी यादों के बटुए में सुख-दुःख का मेला अक्सर लगते रहता है जिसका जैसे समय आता है हम उसका आनंद लेते रहते हैं. हम कभी आँसू बाँटने लगते हैं तो कभी मिठाइयाँ यही जीवन है और आपके हाइकु यहाँ अपनी यादों की गठरी में अपने पाठकों के लिए बहुत सी भेंट लेकर आए हैं ,आइए एक -एक करके इनका आनंद उठाएँ-

बदरा बैरी/यादें बरसा जाते/हुक उठाते.

दर्द निम्बौरी/अश्क घूँट में पी ली/छिला अंतस.

बीती कहानी/कई यादें सुहानी/आँख में पानी.

मन की मीत/गठरी यादों भरी/भींच सहेजूँ.

               इस संग्रह में भावना जी को लगता है कि ‘काँच सा मन’ अक्सर इस बात से डरता है कि-कहीं हमारा सूरज कोई छीन ना ले,कहीं बैर का पौधा वृक्ष ना बन जाए इसलिए रौशनी की खोज में सूर्य की और बढ़ने का सन्देश दे रही हैं और ईश्वर से प्रार्थना भी करती हैं कि-इस जग में शांति हो. वास्तव में हमारी मूल भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की सदा से रही है आपने इसे हाइकु में आगे बढ़ाया है.

             इस अच्छे संग्रह के लिए आपको साधुवाद,बधाई एवं शुभकामनाएँ इस बात के लिए आपके हाइकु की यात्रा अनवरत जारी रहे.इस अच्छे संग्रह से पाठकों को इस विधा में कुछ नया सीखने को अवश्य मिलेगा. 

सर्द हवाएँ/गुम हुआ सूरज/आ मिल ढूँढें.

करूँ प्रार्थना/जग से मिटे बैर/विश्व शांति हो.

होली-2021                                                   

                                                                                                     

                                                    रमेश कुमार सोनी

                एल.आई.जी.24 कबीर नगर,फेज-2 -रायपुर, छत्तीगढ़ -492099

                    Mo.- 9424220209 / 7049355476


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काँच सा मन-हाइकु संग्रह, भावना सक्सेना

प्रकाशन-अयन प्रकाशन,महरौली,नई दिल्ली , (हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित)

पृष्ठ-104  मूल्य-220/-Rs.,सन-2021, ISBN.NO.-978-93-89999-73-0

भूमिका-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु  प्राक्थन-डॉ.चन्द्र शिखा-निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी ……………………………………………………………………………

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