समझौतों के चारागाह
बेखौफ और खारा होने लगा है
नदियों से आने वाले शब्द
नृशंस यातनाओं से प्रदुषित हैं
खूंखार और बाहुबली
लोगों की दुनिया से
सहमे हुए बेहद आंतकित शब्द भी
आँखे मूंद कर हाँक दिए गए हैं-
हाशिए पर सुबकते रहने के लिए
मेरा समंदर उफनाना चाहता है
भाप बनकर सर्वत्र उड़ते हुए
गड्डमड्ड हो गये हैं सभी शब्द।
समझौतों के इस चारागाह में जहाँ
दुनिया चित्रलिपि की ओर अग्रसर
हैं
इनसे मेरे हीरक हस्ताक्षर वाले
शब्दों को विलुप्तता का खतरा है,
फिर पन्नों में दफ़न हो जाएँगे-
सद्भावना, संवेदना एवं प्यार के शब्द
क्योंकि चीखते शब्दों के वन कट चुके हैं
लोग अपने शब्दों को छोड़
विदेश उड़ चले हैं।
मैं अपने शब्दों को
महुए सा बिन रहा हूँ
अपने दिल के गुल्लक में संजोने
ताकि सनद रहे वक्त पर काम आए
इसकी महक मुझे
गौरैया सा निडर बनाती है
मैं बचाना चाहता हूँ अपने शब्दों में-
सहिष्णु जिंदगी की इबारत और
संपूर्ण मानवता की सेवा करते
जादूगरी वाले शब्दों के साथ
बचपन के शब्दों का बगीचा
जो मेरी वसीयत भी है....।
..... ..... .....
No comments:
Post a Comment