ताँका की ध्वजा थामे साहित्यिक वीरांगनाएँ -
जापानी साहित्य की लोकप्रियता अब तक हिंदी में
हाइकु विधा को लेकर सर्वाधिक है इसके पश्चात ताँका और सेदोका आते हैं | ये विधाएँ
अपने लघु कलेवर में संवेदनाओं की बेहतर अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं ; ऐसा नहीं है
कि जापानी साहित्य में लम्बी रचनाएँ नहीं की जाती , इसमें चोका का नाम उल्लेखनीय
है |
हिंदी साहित्य की ताँका विधा
में 5+7+5+7+7 के वर्णक्रम में कुल 31 वर्ण की रचना प्रक्रिया का पालन किया जाता
है जो की 5 पंक्तियों में लिखा जाता है , यह हाइकु का ही विस्तृत रूप है | ताँका का शाब्दिक अर्थ लघुगीत होता है ; इसके लिए किसी विषय का बंधन नहीं है | इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें
काव्य तत्व की उपस्थिति अनिवार्य है | किसी काव्य में जो गुण / विशेषताएँ होनी चाहिए
वो सभी इसके लिए भी लागू होते हैं लेकिन महज तुकांत के लिए इसके काव्यत्व से
खिलवाड़ नहीं होना चाहिए | अपने
इस लघु कलेवर में यह अपने अनुभूत दृश्यों को स्पष्ट एवं पूर्णतया व्यक्त करने की
क्षमता रखती है |
विगत
एक दशक में जब से सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ा है इन विधाओं ने अपनी लोकप्रियता का
ग्राफ ऊँचा किया है क्योंकि इसकी निर्भरता मुद्रित पत्र – पत्रिकाओं पर नहीं रही |
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ. हरदीप कौर संधु जी के सम्पादकीय नेतृत्व में हिंदी हाइकु और
त्रिवेणी ब्लॉग ने तो इस क्षेत्र में अपनी विशेष ख्याति अर्जित की हैं |
हिंदी ताँका में
डॉ.सुधा गुप्ता जी, डॉ.उर्मिला अग्रवाल जी का नाम अग्रणी है इनके एकाधिक एकल
संग्रह मार्गदर्शन हेतु उपलब्ध हैं | इस वक्त मेरे समक्ष ‘ झरा प्यार निर्झर ’
ताँका संग्रह समीक्षा हेतु प्राप्त हुई है जिसमें पुराने और नये कुल 23 ताँकाकारों
के 701 ताँका प्रस्तुत किये गए हैं | सिद्धहस्त महिला रचनाकारों के इस वृहत संकलन
की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही है क्योंकि सभी ताँका अपने मानकों पर खरे हैं
किसी के भी ताँका किसी से मेल नहीं खाते | इनके ताँका में विषय का वैविध्य है , नयापन पसरा हुआ है एवं उत्कृष्टता निखरी हुई है ; सकारात्मकता इसके केन्द्रीय
भाव में विद्यमान है |
प्रत्येक ताँकाकार की अपनी अलग दुनिया एवं
अनुभूतियाँ हैं इन सबकी प्रकृति को निहारने और उसका मानवीयकरण करने की अलग शैलियाँ
हैं जिसके चलते प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन यहाँ अपनी सुन्दरता लिए प्रकट हुई
हैं | पौष की सुन्दरता उसकी गुलाबी धूप , रजाई , अलाव एवं ऊनी कपड़ों से है वहीँ इन
सबसे महरूम लोगों के लिए ये मुसीबत का पहाड़ भी है | आइये सर्दी की धूप का आनंद इन ताँका
के साथ लें -
पौष की हवा / कहे मार टहोका /
बता तो जरा / अब क्यों दुत्कारती / जेठ में दुलारती | [डॉ. सुधा गुप्ता]
जाड़े की धूप / पुरानी सहेली सी /
गले मिलती / नेह भरी ऊष्मा दे / अँकवार भरती | [डॉ. सुधा गुप्ता]
सर्दी की रात / सुलगती अँगीठी /
मन में बसी / वो होलों की खुशबू / मीठी अलबेली सी | [डॉ. भावना कुँवर]
दो मुट्ठी धूप / छिड़की यहाँ – वहाँ
/ मेघ रजाई / छिप के पूछे रवि / बूझो तो मैं हूँ कहाँ | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
बाँहें फैलाए / व्योम पथ को रोके /
मेघ है खड़ा / कैसे जाती धरा पे / शर्मीली है ये धूप | [डॉ.पूर्वा शर्मा]
सावन – भादों में मेघों और बूँदों की जुगलबंदी
से सभी वाकिफ हैं लेकिन यदि इन्हें इन ताँका की दृष्टि से देखें तो इसकी सुन्दरता और
विनाशलीला इस प्रकार है –
बादल छाए / चलीं तेज हवाएँ / बरसा पानी /
भागी रे धूल रानी / यूँ घाघरा उठाए | [डॉ. हरदीप कौर संधु]
आईना दिखा / बादलों को चिढ़ाए /
कूदे पहन / मोतियों का लहँगा / झरना बन जाए | [कमला निखुर्पा]
मेघ दानव / निगल गया खेत /
आया अकाल / लहू से लथपथ / खेत व खलिहान |
[डॉ.जेन्नी शबनम]
खुली किताब / ये बिखरी अलकें /
आवारा घूमें / ज्यों दल बादल के / ज्यों खुशबू मलके | [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
इस ताँका
में पतझड़ में पत्तियों के बिछुड़ने का दर्द , जुगनू की रौशनी ,काकभगोड़ा और समुद्री
लहरों की अठखेलियाँ स्पष्ट दिखाई दे रही है -
अदभूत है / पतझड़ सौन्दर्य / घूँघट
हटे / नभ की पृष्ठभूमि / विनम्र वृक्ष खड़े | [डॉ.कुमुद बंसल]
बाँहें फैलाए / मोटी सी आँखों वाला
/ अकड़ खड़ा / खेत का रखवाला / भूस भरा पुतला |
[डॉ.कुमुद बंसल]
जुगनू दल / चले पीठ पे लाद / रात्रि
के संग / रोशनियों के बल्ब / हुए मस्त मलंग | [डॉ. भावना कुँवर]
भागती रहीं / इक दूजे के पीछे /
विलीन हुईं / सागर सतह में / चंचल वो लहरें | [डॉ.सुदर्शन रत्नाकर]
धूप
के रंग यहाँ देखिए - सखी बनकर महावर रचा रही है ; नभ के काँधे सूर्य सोया है वहीँ
वसंत फूल का गजरा बाँधे दूल्हा बने इतरा रहा है | यह सुन्दरता अपने आप में ताँका
की सम्पूर्णता को प्रस्तुत करते हैं -
फिर से आई / धूप मेरे अँगना
/ स्नेहिल सखी / किरणों से रचती / मेहंदी , महावर | [शशि पाधा]
वृक्ष ओट से / निकला शिशु रवि /
प्यारी सी छवि / झाँकता नीलकंठ / हँसता मंद – मंद | [डॉ.कुमुद बंसल]
सिर टिका के / नभ के काँधे पर /
सूरज सोया / धरा गुनगुनाए / मधुर लोरी गाए | [अनीता ललित]
दूल्हा वसंत / धरती ने पहना / फूल –
गजरा / सज -धज निकली / ज्यों दूल्हन की डोली | [डॉ. हरदीप कौर संधु]
फूलों से भरी / धरती की चूनर / हवा
जो छेड़े / सरके है आँचल / पिय वसंत आया | [कमला निखुर्पा]
पवन संग / नाच उठी पत्तियाँ / कली
मुस्काई / सुनहरा झूमर / पहन कौन आई ? [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
यादें
अपने साथ सुख – दुःख की ढेरों बातों की पोटली साथ लिए चलती हैं जिनके सहारे लोगों
की लम्बी उम्र तक कट जाया करती है लेकिन महज यादों को सहारा बना कर जिया नहीं जा
सकता इससे सबक लेकर जीवन की उलझनें सुलझानी होती है | वैसे भी वक्त अपने साथ सभी
ज़ख्म भर देता है याद़ों की ये बारात दिखने में यहाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं -
बड़ी भीड़ है / आँसुओं के गाँव
में / यादों का काँटा / अनायास आ चुभा / छाले भरे पाँव में | [डॉ. सुधा गुप्ता]
कोई भी कब्र / नहीं दिल से बड़ी / रोज होते हैं / दफ़न बेहिसाब / इसमें अहसास
| [कृष्णा
वर्मा]
दिल की गली / तेरी यादें है टँगी /
आँखे हैं गीली / पलक अलगनी / हुई है सीली – सीली | [अनीता ललित]
बचपन के / शहतूत से दिन / चूसे
वक्त ने / मिठास बाकी रही / कहीं न कहीं अभी | [ज्योत्सना प्रदीप]
आँखें मुस्काई / लब खामोश रहे /
ज़रूर आज / दिल ने कोई पन्ना / पलटा अतीत का | [रश्मि शर्मा]
जीवन
महज रोटी , कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है ; इस जीवन की आपाधापी में लोगों का
विश्वास तब हिलता है जब वे कठिनाइयों में घिरते हैं और अपने मोक्ष की कामना में
ईश्वर का स्मरण करता है | माटी के इस पुतले की भक्ति की भारत में अनेकों गाथाएँ
प्रचलित हैं स्वयं ईश्वर का यहाँ प्राकट्य हुआ है इस नाते यह धरती इस परंपरा से
समृद्ध है | जापानी साहित्य और हिंदी साहित्य विधाओं में ये विषय उसकी आत्मा के
रूप में होते हैं जिनके बिना उस विधा का अपना सौन्दर्य खोखला सा लगता है -
सुनो जी कान्हा / सात छेद वाली मैं / खाली ही खाली / तूने अधर धरी /
सुरों की धार बही | [डॉ. सुधा गुप्ता]
छम से बजी / राधिका की पायल / सुन के धुन / दौड़ पड़ी गोपियाँ / उफनी है कालिंदी | [डॉ. सुधा गुप्ता]
दिन का अंत / साँझ का आगमन / चलता क्रम / धूप – छाँव ज़िन्दगी / जन्म –
मृत्यु का चक्र | [डॉ.सुदर्शन रत्नाकर]
मन पिंजरा / मुक्ति की आस लगी / उड़ना
चाहे / जाए तो कहाँ जाए / दुनिया तड़पाए | [डॉ.जेन्नी शबनम]
उसका चाक / है माटी भी उसी की / जैसा
जी चाहे / रचे सृजनहार / है कुशल कुम्हार | [कृष्णा वर्मा]
ताना – बाना ये / कैसे बुना जुलाहे /
मुझे सिखा दे / संभले न मुझसे / जीवन की ये डोर | [मञ्जूषा मन]
दो ही अक्षर / कैसा खेल दिखाएँ / जपता
मन / जब राधे – राधे तो / श्याम नज़र आएँ | [कृष्णा वर्मा]
बावरी मीरा / ढूँढती वन – वन / मन मोहन
/ सुनें मुग्धा के कान / अनोखी वंशी तान | [ज्योत्सना प्रदीप]
पल दो पल / आओ हँस – बोल लें / न जाने कब
/ समय का मछेरा / फाँसे हमें जाल में | [पुष्पा मेहरा]
इस
खंड में श्रृंगार रस के दोनों अंग संयोग और वियोग दोनों ही भाव प्रकट हुए हैं तथा
यह सिर्फ मानव मात्र तक सीमित न होकर पशु – पक्षी और पादपों से भी प्यार निभाया गया है | भारत में तो इन रूपों की पूजा
भी होती है जिससे इसका संरक्षण किया जा सके | आइए इसके अद्भूत प्रेम रस का पान
करें और इस दुनिया से नफरत को उखाड़ फेंकें -
मन का कोना / भीग उठा नेह से / नन्ही ‘ मोतिया ’ / पाँवों में आ बैठी जो /
मेरी धोती घेर के | [डॉ.
सुधा गुप्ता]
सृष्टि प्रेम की / सींचती प्रतिपल
/ आए प्रलय / बूँद थी मैं तुम्हारी / तुम्हीं में हूँ विलय | [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
झुरमुटों में / बजे पहाड़ी धुन / अधर
हिलें / है प्रेम अभिसार / प्यारी छाँह चिनार | [डॉ.कुमुद बंसल]
नज़रें उठीं / ज्यों चमके सितारे /
झुक ही गईं / लो मेरी निगाहें भी / सजदे में तुम्हारे | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
चाहें तुम्हें ये / बताया ही न गया /
लाज – घूँघट / चाहके भी उनसे / हटाया न गया | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
झूलती प्रीत / मन के छज्जे पर / बचपन
की / सुन्दर गमले सी / खिलें नए सुमन | [डॉ.कविता भट्ट]
रोई प्रीत यों / विरह के आँगन /
जैसे वन में / छूटी हो सिसकती / सुन्दर बंजारन |
[डॉ.कविता भट्ट]
आँख की लाज / पलकों में सिमटी / देह
निगोड़ी / क्यों भेद न छिपाए / काँपे सिहर जाए | [शशि पाधा]
मेरी साँसों में / उसके जीवन का / एहसास
है / अब न मैं न ही वो / बस प्रेम जीता है | [पूनम सैनी]
दुनियावी
जिंदगी में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे घर – परिवार , समाज के साथ निभाना
ज़रूरी होता है जिसके लिए रिश्ते एक आवश्यक बंधन है | रिश्ता चाहे रक्त का हो या
पड़ोस का जिसे मुँहबोला रिश्ता भी कहते हैं |
;
रिश्तो के अनेको नाम हैं जिसमें माँ को प्रमुखता मिली हुई है | आधुनिक दुनिया में
वैश्विक गाँव के नाम पर न्यूक्लियर फैमिली में सिमटते परिवार , लिव इन रिलेशनशीप
और इन रिश्तों की आड़ में धोखा , षड़यंत्र ...आदि इसकी पवित्रता को बदनाम करते हैं |
आइये इन ताँकाओं में इसके बरसते स्नेह का आनंद लें तथा इसकी नकारात्मकता का दमन
करें –
कितनी रातें / बिताई जागकर / मुझे सुलाया / नहीं
उतरता है / क़र्ज़ माँ के प्यार का | [डॉ.सुदर्शन रत्नाकर]
पोपला मुँह / दादी बैठी उदास /
चूल्हे के पास / लड्डू मट्ठी बाँधती / पोता ले जाए साथ | [प्रियंका गुप्ता]
अम्मा की आँखें / मोतियाबिंद
वाली / आज तक भी / करती रहती है / रिश्तों की तुरपन | [अनीता मंडा]
बेटी लाडली / सुख सौभाग्य पूर्ण
/ जब पधारे / घर आँगन खिले / महके फुलवारी | [अनीता ललित]
पिता ने कसी / मूँज वाली खटिया /
बैठी धप्प से / परी जैसी उसकी / सलोनी सी बिटिया | [रश्मि शर्मा]
तुम्हारा ख्याल / लगे ज्यों नर्म
शॅाल / भावों की गर्मी / नेह का उपहार / बना रहे ये प्यार | [मञ्जूषा मन]
किसे था पता / ये
दिन भी आएँगे / अपने सभी / पाषण हो जाएँगे / चोट पहुँचाएँगे | [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
रिश्तों में अब / भरोसा नहीं रहा / भरता दर्द / पहले लबालब / फिर रिसता रहा
| [डॉ. भावना कुँवर]
मिलता काट / साँप के ज़हर का / न मिले
तोड़ / अपनों के काटे का / आस्तीन में पलते | [अनीता ललित]
इंसानी
जिंदगी में पर्व और त्यौहार उसे रिफ्रेश करते हैं ; प्रत्येक पर्व विविध संस्कृति एवं परम्पराओं से जुड़े हुए हैं | यहाँ
मुख्य रूप से होली , दीपावली , दशहरा और राखी की सुन्दरता प्रस्तुत हुई है -
सुमन खिले / दीपों के घर – घर /
उजियारे के / होश उड़े पल में / घोर अँधियारे के | [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
खेल तो लूँ मैं / होली संग तुम्हारे / ज्यों रंग डालूँ / तुमपे कान्हा
भीगें / मन , प्राण हमारे | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
उड़े अबीर / फाग उड़े अँगना / गोरे कपोल / लाज से हैं गुलाल / होली वसंत लाया
| [कमला
निखुर्पा]
उड़े गुलाल / हुई रंग बौछार / घर –
आँगन / रंग से रंग मिले / दिल से दिल नहीं | [डॉ. हरदीप कौर संधु]
कभी न जला / अंतस॒ बसा रावण / बड़ा
कठोर / हर साल जलाया / झुलस भी न पाया | [डॉ.जेन्नी शबनम]
चाँद चिहुँका / सावन का महीना / पूरा जो खिला / भैया – दीदी के साथ / राखी
मनाने आया | [डॉ.जेन्नी शबनम]
तीज – त्यौहार / भूली आधुनिकता / सौहाद्र ,प्यार
/ बस फेसबुक पे / लिख पोस्ट दो - चार | [प्रगीत कुँवर]
जीवन
की गति को दुःख का ब्रेकर और सुख की उड़ान मिलते रहती है यह एक ही सिक्के के दो
पहलू की तरह होते हैं | कोई भी यह नहीं कह सकता कि किसी एक पर उसका एकाधिकार है , सभी को
इससे दो - चार अवश्य होना पड़ता है | इन ताँकाओं में ये सब अनेक रूपों से
प्रतिबिंबित हुए हैं आइये इन्हें निहारें -
दिन पखेरू / सुख
के बन गए / दुःख बने हैं / लम्बी , काली , गहरी / अमावस की रात | [डॉ. भावना कुँवर]
सुख तो आते / संग – संग गठरी / दुःखों
की लाते / मैं खुलने न दूँगी / बिखरने भी नहीं | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
बूढ़ा चिनार / खड़े हो सीमा पर /
रहा निहार / शव मातृ भक्तों के / नैनों में सूनापन | [डॉ.कविता भट्ट]
ख़ुशी रूक जा / मुझे भी साथ ले ले
/ कैसे ले चलूँ ? / पैरों में पहनी है / दुखों की बेड़ी तूने | [कमला निखुर्पा]
हिसाब रखो / ख़ुशी भरे पलों का /
दुःखों का नहीं / अँधेरों से भी ज्यादा / रौशनी भली लगे | [प्रियंका गुप्ता]
छाँव सुख की / नटखट बालक / चंचल
दौड़े / नयन मटकाती / टिके नहीं दो घड़ी | [भावना सक्सेना]
इस
नयी दुनिया में अथाह दर्द का सागर है और सीमित सुख के पहाड़ हैं | इन दिनों मोबाइल
नामक यंत्र की गिरफ्त और बाज़ार की चकाचौंध ने सबसे क्या छीन लिया है उसे स्वयं पता
ही नहीं चल पाता | इन सब समस्याओं और बाधाओं के बीच ही व्यक्ति पीस जाता है तब कलम
अपने अनुभवों को इस रूप में ये लिख पाते
हैं -
यह जीवन / बाल
श्रमिक सा है / अबोध , किन्तु / अथक जागता है / ढोता अभिलाषाएँ | [डॉ.कविता भट्ट]
नंगे बदन / सोता है बचपन / नहीं साधन / कँपाती ये हवाएँ / कहर ढाती जाएँ | [डॉ.सुदर्शन रत्नाकर]
फुफकारती / नाग बन डराती / बाधाएँ सभी / मगर रुकी नहीं / डरी नहीं ज़िन्दगी
| [डॉ.जेन्नी
शबनम]
रात औ दिन / हाथ में मोबाइल / बातों
में मग्न / तन – मन को घेरे / फिर एकाकीपन | [कृष्णा वर्मा]
आत्ममुग्धता / प्रदर्शन की होड़ /
सेल्फी का खेल / सीमाएँ तोड़ डाली / मन फिर भी खाली | [भावना सक्सेना]
उलझे रोज / ईयरफोन जैसी / ज़िन्दगी यह
/ सुलझाया जब भी / मिली उलझी हुई | [अनीता मंडा]
पिता लाए थे / झूले के लिए रस्सी /
सूखा पड़ा तो / बेटी ने छुपा रखी / ढूँढे से भी ना मिली | [अनीता मंडा]
नित सताए / जीना दूभर करे / डायन भूख
/ झोंक दे बचपन / जुर्म की गलियों में | [ मञ्जूषा मन]
नेह लुटाओ / या ठेस
पहुँचाओ / मर्जी तुम्हारी / अपनी फितरत / सिर्फ फूल बिछाना | [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
किसका सगा / समय का सितारा / देता है
दगा / जब चाहा सो गया / जब जी चाहा जगा | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
यह
संकलन अपने आप में ताँका विधा को विस्तार से परिभाषित करती है और विस्तृत अध्ययन
का आमंत्रण देती है | सभी ताँका पुष्ट हैं किसी को
निम्नतर करके नही आँका जा सकता | यह संग्रह महिला सशक्तिकरण का एक उम्दा उदाहरण है
और हिंदी साहित्य के लिए भी एक मील का पत्थर है | इस संग्रह में इनके दर्द छिपे
हुए हैं जो उभरकर विरोध स्वरूप इन विषयों पर प्रकट होने चाहिए थे जैसे – कन्या
भ्रूण हत्या , गेंगरेप और घरेलू हिंसा ; बतौर लेखक , समाज की इन घटनाओं को जो
समाचारों की सुर्ख़ियों में होते हैं उनके प्रति देश की आधी आबादी को ये चुप्पी
ज़रूर तोड़नी चाहिए |
इस
नए वृहत संकलन में संपादक द्वय ने काफी मेहनत की है ; यह संग्रह ताँका विधा को
समृद्ध करेगा और नवलेखकों का मार्गदर्शन करेगा | यह संग्रहणीय अंक सभी को अवश्य
पढ़ना चाहिए |
इसके
सभी ताँकाकारों को मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ -
नया सूरज / नया सवेरा लाए / मन
मुस्काए / खुशियों की रागिनी / ये मन वीणा गाए | [डॉ.ज्योत्सना शर्मा]
मधुर वाणी / अधरों की निधियाँ /
बाँटो तो जानो / नेह मणि बिखरी / जगती के अँगना | [शशि पाधा]
उगी है भोर / दिन के कोरे पृष्ठ
/ जो चाहे लिखो / सँवारने को भाग्य / शब्द नए नकोर | [कृष्णा वर्मा]
रमेश
कुमार सोनी – बसना
[ छत्तीसगढ़
] 7049355476
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झरा प्यार निर्झर – ताँका संग्रह ,संपादक- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
एवं डॉ.ज्योत्सना शर्मा /अयन प्रकाशन – महरौली दिल्ली, सन– 2019
ISBN – 978-83-88471-15-2 मूल्य– 250=00रु. पृष्ठ – 128
समीक्षक–
रमेश कुमार सोनी, बसना 493554 [छत्तीसगढ़]7049355476
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पुस्तक का गहन अध्ययन कर बहुत सारगर्भित समीक्षा लिखी आपने!
ReplyDeleteउद्धरण का चयन भी सुन्दर, संतुलित है। इस उत्कृष्ट कार्य हेतु आपको बहुत बधाई एवं आभार !
बहुत सुन्दर और सार्थक समीक्षा के लिए रमेश कुमार सोनी जी की हृदय से धन्यवाद। आपकी समीक्षा मुझे और लिखने के लिए प्रेरित करेगी।
ReplyDeleteपुस्तक में मेरी लेखनी को स्थान देने के लिए काम्बोज भाई और ज्योत्सना जी का आभार।
बहुत सुन्दर,सरस और सारगर्भित समीक्षा के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय रमेश कुमार सोनी जी ! मेरे ताँका को भी आपने अपनी समीक्षा में स्थान दिया,इसके लिए हृदय से आभारी हूँ !
ReplyDeleteआप सभी को धन्यवाद |
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