स्वर्ण रश्मियों जैसे उर्जावान हाइकु का बागीचा -
हिंदी हाइकु का
विश्व में एक विशेष स्थान है , हाइकु काव्य की विशेषता यह है कि इसे पढ़ने के लिए
जरुरी नहीं क्रमवार पढ़ी जाए कभी – कभी इसकी पंक्तियों में बदलाव करते हुए भी पढ़ा
जा सकता है | हाइकु महज तीन पंक्तियों और सत्रह वर्णों का कोई भी लेख नहीं होता
बल्कि यह अपने आप में पूरा का पूरा अनुभूत दृश्यों का शब्दांकन होता है जो गहन अनुभवों
से गुजरने के बाद ही सध पाता है इसलिए भी बहुत से रचनाकार इससे परहेज करते हैं | इन
सबके बाद भी आज हाइकु का परचम फहरा रहा है, इसके विशेषांक , संग्रह निकल रहे हैं ,
गोष्ठियाँ , कार्यशालाएँ हो रही हैं | हिंदी हाइकु अब किसी परिचय की मोहताज नहीं
और इसे चलने के लिए किसी काँधे की आवश्यकता भी नहीं ; इसे इस मुकाम तक पहुँचाने
वाले सभी हाइकु साधक धन्यवाद के पात्र हैं |
सुश्री रचना श्रीवास्तव जी का हाइकु संग्रह - भोर
की मुस्कान पढ़ने का अवसर मुझे रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु ’ जी ने प्रदान किया
; इसे पढ़ते हुए आपकी लेखनी के दर्शन हो रहे हैं | यद्यपि यह आपका प्रथम हाइकु
संग्रह है लेकिन इससे पूर्व आपने - कहानी , लघुकथा एवं अनुवादक की भूमिका में
हिंदी साहित्य की सेवा विदेश में रहकर भी की है | आपके इस प्रथम हाइकु संग्रह –
भोर की मुस्कान में आपने 345 हाइकु को इन उपशीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया है
- भोर किरन , उत्सव की धूप , मौसम की रंग , नेह की बूँद , रिश्तों की डोर , धरा का
आँगन और समय का सच | मेरी बात में आपने इसे प्रतीकात्मक काव्य मानते हुए लिखा है
कि - इसमें छिपे हुए भाव को पाठक समझकर हाइकुकार के जैसा ही अनुभूत करता है |
भोर किरण – खंड के अंतर्गत सुबह की ताजगी का
सन्देश , सूर्य की लालिमा के साथ जीवन के आरम्भ का शंखनाद अक्सर हमें ओस की
बूंदों, स्वच्छ हवा के साथ स्फूर्ति देती है | इसे रचना जी इस तरह से वर्णित करती हैं कि
- भोर की बेला में सुनहरे पत्तों से सजा है - वन प्रांतर , नदी का पानी सिंदूरी हो
गया है , उम्मीद की फसल बोई गयी है ,पंछी काम के लिए अंगड़ाई लेते उड़ चुके हैं,कमल
दल खिल रहे हैं और इस सुनहरी धूप के धरा को चूमने से वसुधा के लजाने का सुकोमल
दृश्य शब्दातीत है-
सिंदूरी हुआ / नदी का नीला पानी / भोर जो आई |
चूमा मुख जो / सुनहरी धूप ने / धरा लजाई |
भोर की बेला / पंछी ले अंगड़ाई / कमल खिले |
बोए सिंदूरी / उम्मीद की फसल / भोर किरण |
उत्सव की धूप – भारत के उत्सव की यादें
अप्रवासी दिलों में भी उमंग भर देती हैं | इसके बिना यहाँ जीवन की कल्पना भी नहीं
की जा सकती इसका ताजा उदाहरण हम अभी के लाकडाउन के दौरान महसूस कर रहे हैं | उत्सव
अपने साथ पारिवारिक और सामजिक खुशियों तथा समरसता का सन्देश लेकर आता है जो
रिश्तों के ताने – बाने को मजबूत करता है ; यह मान – सम्मान , उम्र , जाति भेद को
पाटता है | इन सबके बीच पिता को समय पर वेतन नहीं मिलने का भी दर्द है जिसे आपने
बड़ी ही संजीदगी से लिखा है | इस खंड में हम - दिवाली का स्वागत करते हैः इस
सावधानी के साथ कि - दिए ही जलें किसी का घर ना जले यह आपकी शुभ्र कामना से उपजे हाइकु का उज्जवल पक्ष है | होली में रंग ,
गुलाल के साथ हर कोई भीग जाना चाहता है और हर बार लोग अनायास ही पूछ ही बैठते हैं –
कब है होली ? करवा चौथ हर सुहागन की पूजा
का संकल्प है जिसकी वह सदैव से राह देखती है इस दौरान उसके श्रृंगार और चाँद के
रूप का दृश्य सुन्दर है | आप इस खंड में लिखती हैं - साजन के बिना कैसी होली ? सूरज अपनी मुट्ठी खोल के
अम्बर रंगता है , सैनिकों की सीमा पर क्या
होली – दिवाली ? नया वर्ष पुरानी समस्यायों के साथ आता है जिसमें तारीख के अलावा
कुछ भी नहीं बदलता -
बच्चों के हाथ / फुलझड़ियाँ जलें / प्रार्थना
करें |
मुन्ना निहारे / हाथ लिए अठन्नी / सजी दुकान |
मुरझाया है / चाँद जैसा मुखड़ा / आया न चाँद |
दिवाली भोज / जूठी पत्तल चाटें / वो और कुत्ते
|
सजन छुए / बिना रंगे ही गोरी / हुई गुलाबी |
हुआ गुलाबी / धरा उतरा चाँद / आज होली थी |
मेहन्दी सजे / महावर पाँव में / रात दुल्हन |
चाँद बैठा है / पेड़ की फुनगी पे / निहारे
प्रिया |
ईमान बिका / मजबूरी या पाप / भूखे थे बच्चे |
मौसम के रंग में मौसम के साथ घुलमिल कर ही इसका मज़ा
लिया जा सकता है और इसका आनंद तो भारत जैसे विविध मौसम वाले राष्ट्र में ही मिलता
है | मौसम की चर्चाओं से दूर कोई भी हाइकुकार इन उद्दीप्त दृश्यों को अपने हाइकु
में रंग देता है जिसकी निराली छटा यहाँ हम आपके हाइकु में स्पष्ट रूप से देख पाते
हैं | इस खंड में - वर्षा को बूँदों सजा लहँगा पहनाकर उसे रूपगर्विता बना दिया , भाषा
की कोमलता में श्रृंगार का पुट है ,धूप का छुट्टी पर चले जाना , गर्मी की बढ़ती
असह्य चिलचिलाहट , नदी – झरनों का प्यासा होना, माँ का गर्मी में सूती साड़ी पहनना ,पानी
छिड़ककर आँगन में गर्मी कम करना , आम बौराए तो वो याद आए , बिल में पानी भरने से चींटी
सोचे मैं कहाँ जाऊँ ? एवं बाढ़ का दर्द जैसे अनगिनत दृश्य आपके हाइकु में यहाँ सजीव
हो उठे हैं -
धूप चिड़िया / सिमट कर बैठी / ठण्ड जो आई |
उकडूँ बैठी / काश मिले छतरी ! धूप सोचती |
वर्षा पहने / बूँदों सजा लहँगा / मटक चले |
भरे गागर / ऋतु पनिहारिन / छलक जाए |
गर्मी की रात / छत पर उतरा / घूँघट चाँद |
घटा झुकके / पर्वत को चूम के / बरस गई |
नेह की बूँद में आप लिखती हैं - बादल का घूँघट ओढ़े
चाँदनी का आना , चन्दा के साथ आते - यादों का दर्द एवं जंग लगे बक्से में मुड़ा पड़ा
था पुराना वक्त - वाह सुन्दर एवं नवीन प्रयोगों के साथ ये हाइकु यहाँ प्रस्तुत हुए
हैं | इस खंड के केन्द्रीय भाव में यादें हैं जो श्रृंगार के वियोग के साथ तालमेल
करते हुए दिख रही है ; इस हाइकु के साथ पाठकों को यादों में ले जाने की क्षमता है
|
मैं नर्म लता / तुम तरु विशाल / लिपटी फिरूँ |
आँसू से लिखी / वो चिट्ठी जब खोली / भीगी हथेली
|
तुम जो आए / उगा हथेली चाँद / नैन शर्माए |
रचा के बैठी / सितारों की मेहंदी / तुम न आए |
झाड़ी धूल जो / याद उठ के बोली / क्यों भूली
मुझे ?
रिश्तों की डोर बड़ी नाजुक होती है जिसके दोनों छोर पर
त्याग और समर्पण होता है इससे ही कोई घर - परिवार बनता – बिगड़ता है , पड़ोस संवरता
है , दोस्ती निखरती है | जब भी कोई इसे सिर्फ अपने स्वार्थ के चश्मे से देखता है
तब उसमें दरारें पड़ने लगती हैं , दीमक चाट जाता है , रिश्ते उदासीन होकर खोखले हो
जाते हैं इसलिए इसमें संवादों के साथ – साथ असहमति की गुंजाइश को भी जिन्दा रखते
हुए स्वीकारने की शक्ति होनी चाहिए | रिश्ते हैं तो खुशियाँ किलकती हैं , रिश्ते
हैं तो दुःख दुम दबाकर भाग जाता है | इन सब रिश्तों से होकर गुजरते हुए कोई भी
हाइकुकार कैसे कोरा बच निकलेगा इसलिए आपकी कलम लिख देती है - बरसों बाद सखियों के
मिलने से उमड़े सावन से आँसू , भाई अँगना - बहन चुगे दाना बनके गौरैया , रिश्तों
में पावनता की महक , फुदके माँ की लोरी , पिता की बहुत सी यादें .......नीम सा
कड़वा , शहद सा मीठा रूप , धूप का साया - माँ का सिंदूर पिता , बच्चों का झुनझुना ;
डोली की विदाई , बाबुल का आँगन – ठंडी सी छाँव , भाई से हिस्से में -बहन माँगे
झोली भर खुशियाँ , दोस्ती की सोंधी खुशबू एवं बहन को – राजदुलारी सा मानना | इन
रिश्तों से मन की बगिया में मंदिर की घंटी बज उठती है -
माँ ने बुना था / जब फंदों में प्यार / ठंड
लजाई |
बच्चों के लिए / माँ हो गयी बुढ़िया / पता न चला
|
बेटे का कोट / रोज धूप दिखाती / प्रतीक्षा में
माँ |
अकेला भाई / बहनों की है फौज / क्या – क्या करे
वो ?
कोई न होगा / मारोगे जो बेटियाँ / सृष्टि
रुकेगी |
धरा का आँगन , यानि हमारी धरती को इंसानी लालच
की गतिविधियों ने प्रदूषित किया हुआ है , पर्यावरणीय जागृति का अभाव सर्वत्र कचरे
के रूप में दिखायी देता है | लोग इसे बचाने की सिर्फ फोटोग्राफी करते हैं और भूल
जाते हैं कि यह पौधों की भ्रूण हत्या करने जैसा ही है | हम यहाँ देख पाते हैं हाइकु
के इन सन्दर्भ को - प्रदूषित गंगा , पंछी बिना झील के उदास हैं ,ओजोन पर्त का
क्षरण हो रहा है , दूषित हवा से खाँसता है - चाँद पूरी रात , बंज़र हो रही है धरा ,
लेड की वायु में बढ़ी मात्रा से उपजी समस्याएँ हैं लेकिन इन सबके बीच पेड़ों में
महावर लगाते पलाश हैं , गर्मी में मुस्कुराता गुलमोहर है | विज्ञान के विकास से
उपजे विनाश की चेतावनी भी इनमें निहित है -
गुँथे पलाश / प्रकृति की चोटी में / अजब छटा |
दूषित हवा / पंछी को हुआ दमा / झील कराहे |
दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / बेचारा चाँद |
पेड़ लजाए / गुलमोहर खिला / तो लाल हुए |
लाल गलीचा / गुलमोहर तले / पथिक सोए |
पका मौसम / झील की रसोई में / महकी हवा |
एक धमाका / डरा झील का पानी / जंगल चुप |
होगा विनाश / छेड़ोगे प्रकृति को / अब तो चेतो |
समय का सच में
आपने हाइकु को बोनसाई कहा है | वर्तमान समय के साथ कदमताल करते हुए आपके हाइकु
- जीवन के विभिन्न यथार्थ को वर्णित करते हैं जो आँसू में मुस्कान ढूँढने की तरकीब
निकाल रहे हैं | जीवन की किताब को बाँचते हुए नफरत की फैली आँधी को मिटाने का
सन्देश इनमे निहित है | परिवार के बीच अश्लील गाने देखते – गाते बच्चे और इनके बीच
से हटते लाचार पिता का दृश्य अब हर घर की बात है | घर का बँटवारा में मेरे हिस्से
की पूरी धूप माँगना , दहेज़ की समस्या , बाल मजदूरी के बीच कर्म करने का सन्देश भी इन हाइकु में
सन्निहित हैं -
डॉलर छीने / बेसहारा की लाठी / सूना आँगन |
ईमान बिका / मजबूरी या पाप ? भूखे थे बच्चे |
चाकू उठाए / ये नौजवान पीढ़ी / डिग्री को फाड़े |
शब्दों के घाव / बहुत ही गहरे / सदा ही हरे |
भोर की मुस्कान के
हाइकु पढ़ते हुए मन में एक मुस्कराहट तैर
जाती है , लीक से हटकर नयी अनुभूतियों से प्रस्तुत दृश्यांकन अपनी रौ में बहा ले
जाने में पूर्णतः सक्षम हैं | इस संग्रह में रचना जी के साथ पिता से जुड़ी बहुत सी
यादें दिखती हैं जो स्वाभाविक है क्योंकि
पिता और पुत्री का रिश्ता पावन और गहरा होता है ; वैसे बहुत से हाइकु संग्रहों में
माँ के हाइकु मिलते हैं | आपके हाइकु में जीवन का दायित्व / कर्म का सन्देश है ,
प्रकृति के कई रंग झिलमिलाते हैं | आपके इस पहले संग्रह से ही आपकी रचनात्मकता की
ऊँची उड़ान का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है ; हिंदी साहित्य को आपसे बड़ी
उम्मीदें हैं |
आशा
है कि यह संग्रह नवलेखकों का मार्गदर्शन करेगी ; इस पठनीय , संग्रहणीय हाइकु
संग्रह के लिए रचना जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ |
11.06.2020-
बसना
रमेश कुमार सोनी [
छत्तीसगढ़ ]
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भोर की मुस्कान -हाइकु संग्रह, सुश्री रचना
श्रीवास्तव [कैलीफोर्निया]
प्रकाशक
– अयन प्रकाशन , महरौली – नई दिल्ली , सन – 2014
पृष्ठ– 97 , मूल्य 180=00 RS., ISBN NO.– 978-81-7408-692-1
भूमिका
– रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु ’
उपसंहार
– डॉ.भगवत शरण अग्रवाल , डॉ.सुधा गुप्ता
, डॉ.सतीश राज पुष्करणा ,डॉ.हरदीप कौर सन्धु ,डॉ.ज्योत्सना शर्मा , डॉ.
आरती स्मित , सुभाष
नीरव , सीमा स्मृति , कमला निखुर्पा , सुदर्शन
रत्नाकर , अनिता ललित एवं सुशीला शिवराण |
समीक्षक
– रमेश कुमार सोनी , एच.पी.गैस के सामने , जे.पी. रोड – बसना ,जिला – महासमुंद
[ छत्तीसगढ़ ] पिन – 493554 मोबाइल –
7049355476
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