रँग
स्वार्थ के स्वप्नों की बैशाखी टाँगे
गीतों के सहारे कोई अपने
अकेलेपन को दूर करता हुआ
उम्मीदों की राह पर रेंग रहा था
लाखों लाशों को रौंदते हुए
इमली एक ही जगह खड़े
उसे सौतिया डाह से घूर रही थी।
एक चिड़िया उसी इमली का वंश
सुदूर बो आई अहसान चुकाने
वो शृंगार छोड़कर दौड़ी थी किसान के भेष में
बच्चे पत्थर-लाठी से लैश
इमली गिराने दौड़ पड़े है
बाज़ार इसी खटास को बेच रहा है
गर्भवती नदी तरस गयी इस खट्टेपन को।
जूते घिसकर जिसे कोई मज़ूरी नहीं मिली
उसे इमली,नदी,चिड़िया और बच्चों से क्या मतलब
भूख के स्कूल में दूसरा पीरियड नहीं होता
सिर चढ़कर बोलती है ये आग
नुक्कड़ पर आवाज़ गूँज उठी
तेरा भला होगा कुछ दे दो
काकभगोड़ा खुश है इसे भगाकर
बहुरुपिया भूख ने रँग का कारोबार खोल लिया है।
…..
रमेश कुमार सोनी
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