साहित्य में जीवन की सुहानी सैर
सुनीता जाजोदिया एक प्रतिभासम्पन्न रचनाकार हैं। 'ज़िन्दगी का कोलाज' आपका प्रथम काव्य संग्रह है, इसकी कविताएँ आपकी कोमल अनुभूतियों से शब्दांकित हुई हैं। साहित्यिक जीवन आपको विरासत में मिला है उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए आपकी संवेदनाएँ शब्दांकित हैं।
एक बेहतर रचनाकार वही होता है जो अनुभवों की उबड़-खाबड़ राहों से अपने त्याग और समर्पण के सहारे अपनी लेखनी को बचाकर साहित्यिक भूमि को उर्वरा बना देता है।
अपनी जिम्मेदारियों के साथ जो अपनी करुणा, कोमलता और स्नेह के साथ अपने परिवेश से बिना निराश हुए सामाजिक सरोकारों को बिना लाग लपेट के रच पाता है, वही कविता के साथ न्याय कर पाता है। अपने निर्मल मन को संभाले हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रखरता के साथ उत्सुकता को बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
इस संग्रह की कविताएँ गुंजायमान हैं उन दृश्यों के साक्षी के रुप में, जिसे आपने लोकमंगल के लिए अंतर्निहित किया है। किसी भी रचना की सार्थकता इसी में है कि वह उस सोच को स्वर दे जिसे वर्तमान ने कसौटी पर खरा पाया है। आपने इसमें अपने बेशकीमती उन लम्हों को संजोया है जिसे लोग प्रायः भूल जाया करते हैं। कविता तभी कविता है जब वह आम जीवन में पाठकों को उद्वेलित कर सके या अपनी कोई छाप छोड़ सके। वैसे इन दिनों लगातार प्रकाशित हो रहे काव्य संग्रह यह बताते हैं कि इन्हें किसी भी मंचीय चुटकुलेनुमा रचनाओं से या सोशल मीडिया से कोई खतरा नहीं है।
इस संग्रह में आपकी कविताओं का स्वर-सकारात्मकता, मानवता और नारीमय दृष्टिबोध के केंद्र में है। आत्मविश्वास से लबरेज़ जीवन संघर्षों के प्रति सचेत करती हुई कविता यहाँ मानवता के पक्ष में खड़ी हो जाती है। इनकी कविताओं में कथ्य और शिल्प का सामंजस्य अद्भुत है। परिवेश की घटनाओं को सूक्ष्मता से शब्दों ने सजाया है।
राष्ट्रीय चेतना को जागृत करती हुई ये पंक्तियाँ हमें इन खतरों से आगाह भी करती हैं कि मानवता को ज़िंदा रखने के कई खतरे हमें उठाने ही होंगे। वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की चुनौतियों में से प्रमुख है-साम्प्रदायिकता और तुष्टिकरण जिसके चलते आश्वासन की रेवड़ी बाँटने से उपजी समस्या को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने में आप सफल हुई हैं-
खींचो ना राजनीति की लकीरें सीने पर
मेरे क्षेत्र-प्रांत,जात-पांत से मेरा न कोई वास्ता धर्म-संप्रदाय के गलियारों से मुक्त स्वतंत्रता की
ओजस्विनी धारा हूँ मैं।
संगम है मेरा स्वभाव,
समर्पण का अप्रतिम अन्तर्भाव
मानवता को जिलाने वाली,
एकता का अमृत पिलाने वाली
राष्ट्रीय चेतना की ज्योतिर्मयी मनोभूमि की
अखंड जलधारा हूँ मैं ।(20)
धर्म की सांप्रदायिक दुकानों पर
इंसानियत का ग्राहक बनकर आना
चीर-हरण के चौराहों पर
सखा बनकर चीर बढ़ाना दुराचारों के दलदल में
शक्ति-कमल बनकर खिलना
इस बार वसंत तुम ऐसे आना। (25)
नारियों के हिस्से ढोए जाने वाले संबंध ही अब रिश्तों के जीवाश्म के रुप मे शेष बचे हुए हैं। न्यूक्लियर फैमिली में रिश्तों की विलुप्तता के इस युग में गाँव भी अछूते नहीं रह गए हैं। रिश्तों में विश्वास आता है समर्पण, त्याग और वक्त पर उसके साथ निःस्वार्थ भाव से खड़े होने में। नारियों पर हो रहे विविध अत्याचारों में कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज और घरेलू हिंसा की एक लंबी शृंखला है। इन दिनों अपने परिवेश में जो दिखता है वह है-अपेक्षाओं से उपजी उपेक्षाओं का दौर। ठीक ऐसे ही समय में आपकी कलम लिखती है-
क्षमा की संजीवनी पीकर
जिलाया खुद को हर बार
शुक्र है खुदा का मैं औरत हूँ।
….ममता की उर्वरा धरती हूँ
अहं का बंजर बीज नहीं…। (22)
घरों में सब चाहें अपनी 'स्पेस'।
ऐश्वर्य के बसेरों में
अपनों के हैं वीराने
रिश्ते-मुक्त परिधि की चाहत में
स्पेस-सी निपट शून्य
जी रहे ज़िंदगी शहरों में। (31)
अपने ही घरों में अजनबी हैं लोग
जाने कितने मुखौटे लगाए हैं लोग
भाई ने छीनी भाई की रोटी है
बेटे काट रहे बाप की बोटि-बोटि हैं
जाने किस भरम में सिर उठाए हैं लोग
पत्थरों के शहर में बड़े बेदर्दी हैं लोग।(66)
अधिकार ने ढाया कहर
रिश्तों को लीला अहंकार
भावनाओं का हुआ व्यापार
सपने बिके भरे बाजार।(67)
प्रेम, शब्दों का कोई मोहताज नहीं और ना ही यह अहं का मायाजाल है; ऐसा लिखने का साहस वही कर सकती है जिसने इसे अनूभूत किया हो। आपने इसे जीवन का तीर्थ माना है-
विश्वास ना हो तो दस्तक दे देख लो
आजमाना हो तो पुकार कर देख लो
रुको ना सहम दर पर इसके
बेधड़क कदम बढ़ा कर देख लो
प्रेम की भीनी शीतल बयार से
दूर-दूर तक सुवासित है ये आँगन
इसकी छाँव में जरा ठहर तो देख लो।(103)
कविताओं में प्रकृति का उपस्थित होना उसकी जीवंतता का प्रमाण है क्योंकि यह लोकजीवन का एक अनिवार्य तत्व है और हमारी अनुभूतियाँ इसी से प्रेरित होती हैं। प्रकृति को उकेरते हुए आपके बिम्ब सशक्त हैं तथा इनके भावों में नवीनता है। आपने इन पंक्तियों में प्रकृति को सुंदरता से रेखांकित किया है-
उदासी के बादल चीर
बिखरा उजास है
बीते को बिसरा कर
किया नया आगाज़ है..।(32)
प्राची के आगमन पर
ताप से जो सूरज ने दुलारा
खिल गए पौधे, फल गए वृक्ष
प्रेमिल स्पर्श से
मिट गया था
जगत का संताप सारा।(28)
मोद में अंग-अंग थिरकने लगते
मृदंग पर हाथ थाप देने लगते
खोल बंद आँखें, देख मानव!
प्रकृति में अद्भुत जीवन समाया। (29)
शशि और निशा के मिलन से
नेह का झरता निर्मल मोती हूँ
भोर के आंचल में नवप्रभात की
उज्जवल प्रार्थना की घंटी हूँ।(40)
उजली किरण ने माँडी रंगोली
हर्ष-हिलोर ने बाँधे बंदनवार
नूतन संकल्पों से शृंगार कर
साँसों का है आज उत्सव मनाया।(133)
शराब ही खराब है यदि आज ये किसी कवि को बताना पड़े तो इससे बड़ी क्या विडंबना होगी आज के समाज में। आईना लिए खड़ी इस कविता में दर्द की इंतहा है-
…जागकर सवेरे-सवेरे
माँगेगा वह फिर से रोटी
कैसे कहूँगी बापू तेरे
डुबोकर शराब में
खा गए तेरी रोटी।
कैसे बंद करें दुकानें ये सरकारें
सोच रही थी कोने में वह लेटी
उनके बच्चे भी तो भूखे पेट
माँगते होंगे माँ से
मक्खन वाली डबलरोटी।(35)
सामाजिक कुरीतियों पर भी आपकी कलम मुखर होकर चीखती है कि-इन समस्याओं को परंपरा और वक्त की चादर में ढँककर बचाने वाले सावधान रहें क्योंकि कोई एक दिन ऐसी ही किसी आपदा से आपका भी सामना होगा इसलिए समय रहते इनसे निपटना होगा। ये पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं-
मिटाओ ना कोख में
मिटा लो मन का मैल
कोसो न किस्मत को
छोड़ो कुरीतियों का खेल।(50)
धधकते मोहल्ले दहेज से
अस्मत से खेलते होली
भस्म हो रही हिंसा-अनल में
अनगिनत बहू बेटी भोली।(51)
भाग्य में लिखे दाने चुग कर
जा बसे बच्चे घरौंदों में अपने
बेटियाँ शादी के बाद और
बेटा नौकरी के बहाने।(59)
भूल गए काम-धाम, व्हाट्स एप और फेसबुक तनाव की नाव बहा दी, बनकर बच्चे बारिश में। (95)
वर्तमान दौर में देश की राजनीति के इर्दगिर्द भ्रष्टाचार और खोखले वादों की बँटती मुफ़्त की रेवड़ी की चाहत सभी को है क्योंकि इसी के पास आधुनिक जीवन की मलाई महकती है। ऐसी ही विसंगतियों पर आपने प्रहार किया है-
…कपड़े उजले-उजले
चरित्र में धब्बे काले-काले
संसद और जेल है मेरे
पावन दो धाम निराले ।
बापू का देश ये महान, है अब मेरे कंधों पर सुराज की अर्थी भी, अब मेरे ही कंधों पर।(84)
कविताओं के साथ क्षणिका,मुक्तक और ग़ज़ल मेल नहीं खाती इन्हें अलग रखना था। इन सबके बीच इन कविताओं ने मुझे आकर्षित किया- स्पेस, धूप के टुकड़े, क्षितिज हूँ मैं, यात्रा, आज़ादी की सोंधी ख़ुशबू, ज़िन्दगी का कोलाज और नवल भोर।
भावों से भरी हुई अद्भुत सम्प्रेषण क्षमता से युक्त अनुभूतियों के सुंदर शब्दांकन वाली आपकी कविताएँ वाकई ज़िन्दगी का कोलाज है जो हर पाठक को अपने साथ जोड़ने में सक्षम है। कोरोना काल की कविताएँ महामारी के उस भीषण दौर तक ले जाने में सक्षम हैं। कुछेक स्थानों पर व्यंग्य का पुट उस कविता को पूर्ण करते हैं। आपमें हिंदी साहित्य के लिए अनंत संभावनाएँ हैं।
इस पठनीय और संग्रहणीय अच्छे संग्रह के लिए आपको मेरी शुभकामनाएँ।
आओ मिलकर दिया जला लें
उजालों को आँचल में भर लें
रोशन हर इक डगर कर लें
उम्मीदों की नयी भोर कर लें।(110)
रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़
……
जिंदगी का कोलाज-काव्य संग्रह,
डॉ.सुनीता जाजोदिया
बोध प्रकाशन चेन्नई-2023
ISBN:978-93-82380-17-7
मूल्य-₹350, पृष्ठ-144,
भूमिका-डॉ.ऋषभ देव शर्मा, हैदराबाद शुभाशीर्वचन-रमेश गुप्त नीरद,चेन्नई
.......
No comments:
Post a Comment