नीलकंठ-पत्तियाँ

नीलकंठ-पत्तियाँ

लाल सुकोमल पत्तियाँ 
आज झाँकने लगीं हैं फिर से 
इस क्रूर बारूद भरे मौसम में भी 
किसी दुधमुँहे बच्चे के जैसे;
युवा होकर हरित यूनिफॉर्म में 
लग जाएँगे ये 
भूख मिटाने 
शाखों की, जड़ों की और 
बूढ़ी हो चुकी पत्तियों की भी। 
इन्हें चिंता है -
अपने पूर्वजों की,
कुछ ऊर्जा फूलों को भी देनी है 
ताकि वे इतरा सकें, 
मुँह चिढ़ा सकें-
इस प्रदूषित वातावरण को,
कुछ ऊर्जा बचाने की भी चिंता है
आने वाली पीढ़ियों के लिए
इसलिए तो इसने बचा रखी है 
थोड़ी सी सांस
बीजों के बैंक में फलों के भीतर। 
पत्तियों को कितना खटना होता है
दिन-रात, हर ऋतु-मौसम में 
जैसे लड़ रहे होते हैं 
सीमा पर सैनिक,
खेत मे मज़दूर, 
शहर से गुजरती 
हरेक की माँ-बहन 
पिता की हाड़-तोड़ जिम्मेदारी 

पर्दे के पीछे की औरतें और 
सजा भुगतता बचपन।
इन्हीं पत्तों में मुझे दिख ही जाते हैं-
कभी रिश्ते वाले आशीर्वाद
कभी ईश्वर की कृपा तो कभी 
इसे रोपने वाले मासूम हाथ 
मैं, इन्हें अब बचाने की
तलाश में हूँ-
उन जिगरवालों की जो 
वक्त पड़ने पर इन्हें 
दो घूँट पानी पिला सकें और 
अपनी हथेली भर छाँव दे सकें
बिल्कुल वैसे ही जैसे 
बचा रहे हों लोग मानवता 
यूक्रेन की धरा पर। 
सुकोमल पत्तियाँ पी लेने को आतुर हैं 
नीलकंठ से बारूदी गरल 
ये वंदनवार हैं 
शांति सेनाओं का 
ये अब भी हँस रही हैं 
ठूँठ पे पड़े हुए-
इंसानी ज़िद पर 
उनके ईश्वर  हो जाने की चाहत पर 
कोई युद्ध लड़ना तो इनसे सीखे
हर पल युद्धरत 
इन सुकोमल लाल पतियों के 
मन को बाँचने का हुनर सीखना होगा। 
……

रमेश कुमार सोनी


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