कविता-गुलमोहर



गुलमोहर 


गुलमोहर की पाँतें खड़ी हैं 

प्रार्थना करती हुई बालाओं सी 

कोलतार की सड़क के दोनों ओर

बिछा रखी हैं इसने 

अपनी शीतल छाया में 

लाल-पीले फूलों का गलीचा

किसी थके-हारे यात्री का 

तलवा सहलाने 

पसीना पोंछने 

क्रोधी सूर्य की प्रचंड लू से निडर। 


गुलमोहर का ऊँचा उठना 

सूर्य को मंजूर नहीं था 

आँधियों का हमला करवाया 

लू की बेंतें चलाई 

घोंसले गिराए 

फूल लूटके ले गए 

भुजाएँ उखाड़ी,घायल किया 

गुलमोहर फिर भी मुस्कुरा रहे हैं 

सभी आततायी लौट गए हैं थक हारकर। 


गुलमोहर अब भी बुला रहे हैं 

सजधज कर 

आमंत्रण बाँटते हुए,

बचे-खुचे परिंदों का गाँव 

इन्हीं के आसपास बचा हुआ है 

बाकी को तो विकास निगल गया है। 

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रमेश कुमार सोनी-रायपुर 

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