विधाओं का गुलदस्ता-महकी भोर

 


          जापानी साहित्य की विविध विधाओं पर एक साथ अपनी अनुभूतियों को आपने इस संग्रह-महकी भोर’ में समेटा है. लब्धप्रतिष्ठ कवयित्री सुनीता काम्बोज की हाइकु, ताँका, सेदोका एवं चोका रचनाओं में उनकी अनुभूतियों को विविध छंदों में बाँधने का यह उदाहरण नया नहीं है,इस तरह के साझा विधा संग्रह पहले भी प्रकाशित हो चुके हैं अतः यह उन सभी संग्रहों को विस्तार देते हुए प्रस्तुत हुआ है. ये सभी विधाएँ अब अपने रचना विन्यास के लिए नए नहीं हैं क्योंकि आज के डिजिटल युग में इसने बहुत तेजी से अपना पंख पसारते हुए पूरे विश्व में हिंदी की शक्ति को स्थापित किया है.

          हाइकु अपने आपमें एक सम्पूर्ण कविता होती है और इसके अनुभूत दृश्य जब शब्दांकित होते हैं तब इसके दृश्य पाठक के समक्ष पूर्णतः खुलने चाहिए तभी यह एक अच्छा हाइकु माना जाता है. इस दौर में लोग हाइकु को सिर्फ इसके वर्ण विन्यास या ढाँचा मात्र के द्वारा अभिव्यक्त करने लगे हैं जो साहित्यिक दृष्टि से उपहास का कारण बनती है तथा यह साहित्यिक कचरा से ज्यादा कुछ नहीं होता. मेरी सलाह सभी हाइकुकारों को यह रहेगी कि वे अपने संग्रह को प्रकाशित कराने में शीघ्रता ना दिखाएँ बल्कि वे इसकी संख्या वृद्धि  के स्थान पर इसकी गुणवत्ता को सँवारें. इस संग्रह में कुल-211हाइकु संग्रहित हैं जो विविध रूपों में यहाँ प्रकट हुए हैं. इन हाइकु की अपनी विशेषताएँ हैं जिसे उनके खण्डों के अनुसार विस्तारित करने की कोशिश मैंने की है-

          हाइकु की मुख्य विशेषता उसका प्रकृति वर्णन आरम्भ से माना जाता रहा है इसी क्रम में आपने भी अपने आसपास की पर्यावरणीय अनुभूतियों को यहाँ शब्दांकित करने की कोशिश की है जिसकी सुघड़ता यहाँ प्रकट हुई है. कोई भी रचनाकार अपने पर्यावरण से बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता इसी कड़ी में आपने इस पल-पल बदलते प्रकृति के परिवेश को अपने हाइकु में सहेज लिया है-किसी गुल्लक की तरह. इस दृश्य में कोई भी पाठक आपके साथ गौरैया की मस्ती,बूँदों का नृत्य,नदियों की बलखाती शीतल लहरों का आनंद,नीम का संन्यास में पतझर की धूप-छाँव, कीकर के फलों का किसी बच्चे की तरह घुनघुना बजाना और शीत ऋतु में परिंदों के कष्ट को हरते सूर्य के दृश्य का आनंद ले सकता है-     

धूप-गौरैया/यूँ नाचती फिरती/दैया रे दैया।

नाचतीं बूँदें/दीवानी-सी होकर/तोड़ें घुँघरू।

ठंडी नदिया/पा किरणों का स्पर्श/लगी हँसने।

नीम संन्यासी/पत्तों का चोला छोड़/हुआ विरक्त।

अमलतास/ओढ़ पीली चूनर/आया है पास।

कीकर पेड़/झूमते ये बिछुए /बजे घुँघरू।

ठिठुरा तन/चिड़िया जाके बैठी/धूप की गोद।

          प्रेम इस दौर में सबसे ज्यादा सहेजकर रखने का एक मानवीय एहसास है जिसकी कमी सर्वत्र दिखाई देती है, वैश्विक गाँव में आधुनिकता का नाम देकर पश्चिम का अन्धानुकरण इसकी पवित्रता को तार-तार करती हैं. प्रेम के अनेकों रूप से भारत ने पूरे विश्व को परिचित कराया है जो देह मात्र तक सीमित नहीं होता बल्कि त्याग और भक्ति भी इसी का ही अंग है. प्रेम सिर्फ इंसानों की वसीयत नहीं है बल्कि इस पर अन्य जीवों का भी उतना ही अधिकार है. इसी क्रम में आपके हाइकु मन की घंटियाँ बजा रहे हैं,आँखों की शरारतें और तुम्हारा ख्याल.... कुछ इस तरह प्रस्तुत हुए हैं- 

गुलाबी गाल/आते ही, महकी मैं/तुम्हारा ख़्याल।

मन घंटियाँ/पाकर तेरा प्रेम/लगीं बजने।

मन का पुष्प/यादों की ये तितली/जाती है छेड़।

नैन कमल/करते हैं ख़ताएँ/भुगते दिल।

          रिश्ते-नातों की बातें घर-संसार रचते हैं इन्हीं के तानेबाने के इर्द-गिर्द दुनिया घुमती है. सिमटते रिश्ते इन दिनों अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े अजगर से लेटे हुए हैं तथा इनका विरासत से नाता टूटने लगा है. रिश्तों के कोमल एहसास से मोहल्ले खनकते हैं तथा इसकी कमी से यहीं अखाड़ा बनते भी देर नहीं लगती. आपने इसे अपने हाइकु में बखूबी उकेरा है-

घर अखाड़ा/संदेह का खंजर/किसने गाड़ा?

दहशत से/काँप रही बिटिया/ढूँढो उपाय।

ये लड़कियाँ/उड़ती चिरैया-सी/बाज से डरें।

 बर्फ़-सी ठण्डी/रिश्तों की ये सड़क/ताप ढूँढती।

          52 ताँका इस खंड में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुए हैं यद्यपि ताँका को लघुगीत माना जाता है लेकिन यह हाइकु का विस्तारित रूप ही है. इसमें भी काव्य तत्व के सभी गुण विद्यमान होने चाहिए. आपके ताँका में एक ओर प्रकृति की सुन्दरता में भँवरों का शगुन गीत है तो वहीं दूसरी ओर मेहमान पक्षियों के पधारने की वृक्ष को ख़ुशी भी है.

प्रवासी पंछी/जब भी लौट आते/गुनगुनाते/पुराने वृक्षों पर/वृक्ष भी मुस्कुराते।

शगुन गीत/गा रहे है भँवरे/आया वसंत/सुवासित कलियाँ/झूमती तितलियाँ।

     आपके ताँका नारी जीवन के विविध अहसासों को गूँथने में सफल रहे हैं. इसमें प्रेम है,मेहंदी है,और डरती हुई नारियों के जीवन में वर्तमान की कुत्सित चालों को भी आपने प्रस्तुत किया है- 

प्रेम पायल/बजती छम-छम/घोलती रस/छेड़े मधुर गीत/मोहन तेरी प्रीत।

मेहँदी जैसा/तुम्हारा यह प्यार/महका और/गया है फिर छोड़/यूँ मन को निचोड़।

रौंद डाली है/नन्ही कोमल कली/कदमों तले/मसले सब ख़्वाब/बेखौफ़ अपराधी।

बसेरा छीना/वो पेड़ दिया काट/चिड़िया रोई/रोई हरेक डाल/धरा करे सवाल।

सोचती नारी/देहरी पर खड़ी/जाऊँ मैं कहाँ/दोनों ओर पराई/ये जीवन सच्चाई।

जलती रही/मैं चूल्हे की लकड़ी/सेकता रहा/तू हर अरमान/आज हुई मैं राख।

    कान्हा की दीवानी बनी इस ताँका की चाहत है कि वह भी अपनी देह छिदवा के मुरली बन जाए ताकि वह कान्हा के अधरों को छू सके, ये अद्भुत प्रस्तुति है-

जो छाती छेदी/मुरली तब बनी/अधरों सजी/मीठी ये धुन गाई/कान्हा के मन भाई।

          इस चोका खंड में कुल-16 चोका दिए गए हैं जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है इन चोका में फ्रेम वर्क अच्छा है साथ ही विस्तार में संजीदगी है. चोका किसी दृश्य विशेष की विस्तार से व्याख्या है जिसमें काव्य की अहम भूमिका होती है. यहाँ इनकी सुन्दरता के आनंद लिए जा सकते हैं-

काली ये रात/काली चादर लिए......../....स्वर्णिम तारे/रात खिलखिलाई/ तृप्ति मन ने पाई।

फिरती रही/रँगरेज न मिला/रँग दे इसे/लाल, नारंगी, हरा/दर्पण देख /अचरज क्यों हुआ/जानती थी वो

काले रंग पर क्या/चढ़ पाया है/कोई दूसरा रंग/कुदरत ने/उस पर सजाए/स्वर्णिम तारे/रात खिलखिलाई/तृप्ति मन ने पाई।

बेघर पंछी/ढूँढते आशियाना...../....पेड़ हैं कटे/धरती है वीरान/रोते हैं मन-प्राण।

पेड़ जो कटे/राही तलाशे छाँव/थके हैं पाँव/आग है बरसती/झुलसा तन/सहमा-सा है मन/हरियाली को/तरसते नयन /जाएँ किधर/ताकते यहाँ-वहाँ/सूखा जो नदी-जल/सूने हैं घाट/सूने हैं मेले-हाट/छोटे बच्चों के/चेहरे हैं सपाट/पेड़ हैं कटे/धरती है वीरान/रोते हैं मन-प्राण।

          इस खंड में कुल-7 सेदोका हैं.सेदोका को छोटी जगह मिली है जहाँ ये अपने परिवेश और मौसम की शिकायत लिए बैठी हैं-

आज सुहाती/यही धूप कल थी/तन-मन जलाती/परवश बेचारी/मौसम की है मारी/यूँ जीती और हारी।

          इस संग्रह में क्षणिकाओं को ज्यादा तरजीह मिली है लेकिन ये गहरी छाप छोड़ने से चुकते हुए दिखे हैं. क्षणिकाओं में तीखापन के साथ किसी दृश्य विशेष की स्पष्ट अभिव्यक्ति होनी चाहिए. यहाँ कुछ क्षणिकाओं को उल्लेखित किया जा सकता है जो अपने खंड का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं-   

सही-ग़लत में केवल/यही फासला है/कि, हर कोई/स्वयं में सही /तथा सामने वाले/की नजर में ग़लत।

जीवन मंच/दो पल का वि़फरदार/कोई गुलाम/कोई सरदार/कभी जीत, कभी हार/जब पर्दा गिरा/बजी तालियाँ/किसी को मिली वाह /किसी का हुआ उपहास।

जीवन की पत्तल पर/कई व्यंजन/सुख-दुःख/अहंकार,वासना/लेकिन सबसे स्वादिष्ट/तुम्हारा साथ।

          ‘महकी भोर’ में सुनीता जी ने अपने अनुभूत सभी भावों को अलग-अलग विधाओं में एक साथ साधने का सफल प्रयास किया है. इस पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह से हिंदी साहित्य की श्री वृद्धि होती हुई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.  

मेरी शुभकामनाएँ.

अक्षय तृतीया-2021

 

रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर-रायपुर,छत्तीसगढ़

9424220209/7049355476

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महकी भोर’-सुनीता काम्बोज

प्रकाशक-हिंदी भाषा साहित्य परिषद-खगड़िया,बिहार 2019

ISBN: 978-93-534669-4-7 पृष्ठ-104 मूल्य-150/-, भूमिका-डॉ. ज्योत्सना शर्मा

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4 comments:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई 👌💐

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  2. सादर धन्यवाद जी, आपका यूँ ही आशीर्वाद मिलता रहे.

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  3. सुंदर सार्थक समीक्षा के लिए हृदयतल से आभार आदरणीय🙏🙏🙏

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