रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’ द्वारा रचित ‘तीसरा
पहर’ में 150 ताँका, 132 सेदोका एवं 44 चोका हैं ,जिसे आपने डॉ.जेन्नी शबनम जी को सादर समर्पित किया है । तीन विधाओं वाले इस संग्रह की रचनाओं
में आपके आत्मकथ्य के अनुसार ‘लेखक के समाज का परिवेश भी शामिल है, जिसके बिना वे अपने आपको शून्य मानते हैं ;इसमें उनके बिताए हुए वक्त के साथ भावों में भी
क्रमिक परिवर्तन देखने को मिलता है’ । बढ़ती उम्र के साथ आपकी रचनाओं के भाव और सघन
होते जा रहे हैं,
जो अपने आपमें गूढ़ अर्थ
समेटे हुए है । एक साथ तीनों विधाओं को साधना और उनके प्रति पूर्ण न्याय करना यह
तीसरे पहर की अनुभूतियों में ही संभव है ।
इन दिनों जापानी
साहित्य की विधाओं को कुछ लोग बहुत हल्के में लेने का प्रयास करते हैं; फलतः उनका साहित्य जगत में मखौल उड़ता है या ये
फिर ये लोग इन्हीं विधाओं पर अपनी गलती का ठींकरा फोड़ने लग जाते हैं । वरिष्ठ रचनाकारों की अग्रिम पंक्ति में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी का नाम पहले आता है, जिन्होनें इन विधाओं को नए युग [ इन्टरनेट ]के
लायक भी बनाया । वर्तमान में ये तीनों विधाएँ अपनी रचना शैली,कथन ,शिल्प,कथ्य ,भावों ...आदि को लेकर
एक पहचान बना चुके हैं । इन सभी विधाओं में एक अनिवार्य तत्त्व समान रूप से पाया जाता है -वह है इनमें काव्य - तत्त्व का पाया जाना । इनके वर्ण- विन्यास से ही ये पहचाने जाते हैं । आपके रचना संग्रह के विविध
आयाम को पढ़ते हुए
मैंने पाया -
ताँका खंड -
इस संग्रह के ताँका भाग
में श्रृंगार रस का महत्त्व इनकी शब्दों की पंगत से लगता है कि ये सजधज कर बाँके छबीले जैसे
इन पंक्तियों की शोभा बढ़ा रहे हैं -
नैन विशाल/अलक
विचुम्बकित/शशि-सा भाल/चूमे सागर चाँद/बरसा अनुराग ।21
बाहों में तुम/लिपटी
लता- जैसे/होंठों से पीते/मादक अधरों को/थम गया समय । 32
गले लगाया/ नभ का वह
चाँद/धरा पे आया/बाहों में लिपटाया/नहीं कसमसाया । 48
आँख लगी थी/सुनी हूक
प्रिया की/सपना टूटा/निंदिया ऐसी उडी/उम्र भर न आई । 71
श्रृंगार मनुष्य का हो या कि
प्रकृति का दोनों ही स्थिति में आनंद का रसास्वादन मनुष्य ही करता है
लेकिन प्रकृति का श्रृंगार निःस्वार्थ होता है, जिसमें सर्वजन हिताय निहित होता है ; अतः यह ज्यादा
कल्याणकारी हो जाता है । आइए इन दृश्यों में अपने आपको खोजने की कोशिश करें -
भोर-सी मिली/साँझ-सूरज
हँसा/किआज कोई/आके मन में बसा/वह भोर थी तुम्हीं । 15
भोर के माथे/जड़ दिया
चुम्बन/खिला आँगन/आँख भरके देखा-/तुम्हीं तो सामने थे । 35
देखा जो चन्द्र/बौरा गई
लहर/व्याकुल बड़ी/चूमने को तत्पर/मुझे लगा-तुम हो । 46
गहन रात/नभ का फैला
ताल/लगाएँ गोता/अनगिन ये तारे/ठिठुरते बेचारे । 132
मानवीय जीवन में रिश्ते
निभाने की रीत सदियों से चली आ रही एक स्वस्थ परंपरा है जो उसके पारिवारिक /सामाजिक
जीवन का प्रमुख आधार हैं । इन रिश्तों को निभाने में स्वार्थ की तिलांजलि देना ही
मुख्य है। यदि इसकी अग्नि में ज़रा सी भी स्वार्थ की लपट
उठी तो, इन संबंधों को कोई भी नहीं बचा सकता । चलिए इन
रिश्तों को समझने की कोशिश करते हैं -
किसे पता था/ये दिन भी
आएँगे/अपने सभी/पाषाण हो जाएँगे/चोट पहुँचाएँगे । 1
रिश्ते हैं सर्द/आँच
बनाए रखो/जीवन बचे/मेहँदी रचे हाथ/नित नया ही रचें । 81
स्वर्ण- पिंजर/कैद
प्राणों का पाखी/जाए भी कहाँ/नहीं कोई भी सगा/सब देते हैं दगा । 93
पंछी चहकें/आकर नित
द्वार/रिश्ता निभाएँ/मुट्ठी भर दाना पा/मधुर गीत गाएँ ।122
चार दिन की ज़िन्दगी में
जीवन जीने के भिन्न -भिन्न जीवन मंत्र बताए गए हैं ; लेकिन इन शब्दों ने सबसे उत्तम विचारों को सहेजा है आइए इन्हें
पोषित करें -
समझें लोग/नफ़रत की भाषा/दो
ही पल में/हुआ मोतियाबिंद/प्रेम न दिखे-सूझे । 96
नीम की छाँव/जोड़ लेती
है रिश्ता/उतरे जब/जीवन-पथ पर/शिखर दुपहरी ।120
जिएँगे कैसे/किश्तों
में जिंदगी?/सौ अनुबंध/हजारों
प्रतिबन्ध/फिर ये तेरी कमी । 128
पीर-सी जगी/सुधियाँ वे
पुरानी/याद आ गईं/साँझ रूठी आज की/झाँझ-सी बजा गईं । 149
इस जीवन में सुख-दुःख
नामक दो पड़ाव सदा हमारे आसपास ही भटकते रहते हैं, जो हमारे कर्मों के अनुसार हमारे पास आते हैं । कहा गया है कि सुख
बाँटेंगे तो वह और बढ़ेगा तथा दुःख
बाँटेंगे तो वह और भी कम होगा; तात्पर्य दोनों ही
स्थिति बाँटने की है /त्याग की है ,संचय की नहीं । हमारी
यही संस्कृति हमें सबसे अलग बनाती है; ऐसी ही भावों को इन
शब्दों ने सुन्दर परिधान दिए हैं -मुस्कान
बाँटने और दुःख अपनाने के लिए-
वे दर्द बाँटे/बोते रहे
हैं काँटे/हम क्या करें?/बिखेरेंगे
मुस्कान/गाएँ फूलों के गान । 3
पीर घटेगी/जो तनिक
तुम्हारी/मैं हरषाऊँ/तेरे सुख के लिए/दुःख गले लगाऊँ । 9
आपके सारे/दुःख मैं ओढ़
लूँगा/इस तरह/जीवन की डोर को/तुझसे जोड़ लूँगा । 50
सुख-कामना/की थी सबके
लिए/मैंने माँगे थे-/दुःख सबके सारे/वे ही पास हमारे । 102
अंत में ये ताँका
विशिष्ट कथन के साथ उपस्थित हुए हैं कि-हम सभी को अपने वर्तमान में जीवन जीने की
कला का अनुसरण करना चाहिए । कई लोग अपनी खेतों की चिड़िया चुगने के बाद जाग्रत होते हैं ,हमें अपने भविष्य के प्रति आशावान बनकर भी जीना
है ताकि हम अपनी मंजिल तक सकुशल पहुँच सकें -
चले जाएँगे/कहीं बहुत दूर/गगन-पार/तब
पछताओगे/हमें नहीं पाओगे । 90
सेदोका खंड -
इस जीवन के उतार-चढ़ाव
के बीच हमारे महापुरुषों ने हमें जीवन जीने के मंत्र सुझाए हैं, जिन पर कुछ लोग अमल करते हैं; लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसे ऐसा कोई माहौल नहीं
मिलता कि वे इन्हें अपनाएँ; क्योंकि उन्हें ज़िन्दा रहने के लिए फ़ाक़ामस्ती से गुज़ारना होता है ,कभी झूठे दिलासों से खुश हो लेते हैं, जिनके दामन पर दुःख का
बसेरा सदा ही रहता है, ऐसे ही दृश्यों के से
अनुभूत रचनाकार की लेखनी सक्रिय हो जाती है । बटोरने और गलतियों से सीखने- समझते तक समय का पहिया किसी की राह नहीं देखता, कुछ ऐसे ही भावों को
समेटे हुए हैं ये सेदोका -
बीता जीवन/कभी घने
बीहड़/कभी किसी बस्ती में/काँटे भी सहे/कभी फ़ाके भी किए/पर रहे मस्ती में। 4
सच बोलके/बिना मेहनत
ही/बैरी बहुत बने/झूठे वचन/सुन खुश हो गए/वे ही सब दो पल में । 39
निहोरा करें/पथराई हैं
आँखें/अम्बर न सुनता/मातम हुआ/सब दिन हैं फ़ाके/घर में किसानों के । 42
सारी ही उम्र /बीती
समझाने में/थक गए उपाय/जो था पास में/वो सब रीत गया/यूँ वक़्त बीत गया । 63
प्रेम इस दुनिया का
सबसे सुन्दर अहसास है, जिसमें करुणा और त्याग
सर्वोपरि होता है ;
इस पर बहुत सी रचनाएँ
आते रहती हैं; लेकिन इसकी अपनी यह विशेषता है कि इस पर जितना
भी रचा जाएगा, वह सदैव नया-सा ही लगता है। श्रृंगार रस से ओतप्रोत इन सेदोका में संयोग और
वियोग को बहुत ही करीने से शब्दांकित किया गया है -
माथा तुम्हारा/मेघमाला
से झाँके/ज्यों चाँद का टुकड़ा/चाँद में दाग/बिखरे जहाँ पर/नभ में छोड़ आया । 23
मुक्त अलकें/बिखरी है
खुशबू/चन्दनी हवाओं की/अधरों पर/थिरकी मधुरिमा/पावन ऋचाओं की । 24
मैं कहाँ रहूँगा?/इतना ही था पूछा/इक
दिन उनसे/हँसके बोले-/ ‘जाना न कहीं तुम/दिल में रहो मेरे । 36
जापानी साहित्य की विधाओं
में प्रकृति वर्णन का विशेष महत्त्व
है ; इसमें चाहे ऋतुओं का
वर्णन हो या उनकी नटखट अदाओं का सभी को सामान रूप से यहाँ सहेजने का कार्य हुआ है ।
प्राकृतिक संसाधनों में महज़ वन -प्रान्तर ही नहीं, अपितु वन्य पशु-पक्षी का भी अपना अलग सौन्दर्य
है ; इन सबमें चाँद, तारे, सूर्य,नदी -झरनों और भोर-साँझ का होना उन दृश्यों में
कुतूहल भरे आनंद की अनुभूति प्रदान करता है–
झील का तट/बिखरी हो
ज्यों लट/मचलती उर्मियाँ/पुरवा बही/बेसुध हो सो गई/अलसाई चाँदनी । 19
फूटी किरनें/सुरमई साँझ
भी/रूपसी बन गई/लौटेंगे सब/माना नीड़ में पाखी/ये पल न लौटेंगे । 26
थकी किरनें/मिले धरा-
गगन/क्षितिज शरमाया/गिरा सिंधौरा/संझा की हथेली से/नभ हुआ सिंदूरी । 44
जंगल जागा/मेपल-पतझर/या
लगी कहीं आग/भड़के शोले/दाहक उठे पात/क्या खूब है यौवन! 117
प्रकृति इन दिनों
इंसानी लालच का खज़ाना हो चुकी है ,इसके विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध दोहन की
त्रासदी हम सब भोग रहे हैं । इन सबका परिणाम प्रदूषण के विविध रूपों में हमारे सम्मुख प्रकट होता है और हम सब इसे एक
वैश्विक समस्या बताकर चुप हो जाते हैं और किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत जिम्मेदारी
लेने से बचते हैं ;ऐसी ही भावनाओं को यहाँ
शब्द मिला है -
तपती शिला/निर्वसन
पहाड़/कट गए जंगल/न जाने कहाँ/दुबकी जलधारा/खग-मृग भटके। 14
झीलें हैं सूखी/मिला
दाना न पानी/चिड़िया है भटकी/आँखें हैं नम/लुट गया आँगन/साँसें भी अटकीं । 15
शीतल जल/जब चले
खोजने/ताल मिले गहरे/पी पाते कैसे/दो घूँट भला कब/हों यक्षों के पहरे। 69
नीलाभ नभ/धुआँ पीकर
मरा/साँस-साँस अटकी/हम न जागे/हरित वसुंधरा/द्रौपदी बन लूटी । 116
चोका खंड –
इस नये जीवन काल ने
मशीनी मानव के पैरों में रुपयों का पहिया लगा दिया है ,जिससे वह अपनी अल्हड़ उम्र को समय से पहले जी
चुका होता है। जीवन वह नहीं जो हम सूचकांक पर देखते हैं या हमें कोई और दिखाता है; बल्कि जीवन वह है जो हम बेफिक्र अपनी तरह से
जीते हैं -
दोष न देंगे/हम आज किसी
को/........./मधुर कल्पनाएँ /समर्पण कर दो । 3
रिश्ते वे सारे/आओ करें
तर्पण/......./तय कर लें/रिश्तों के मज़ार पे/फातिहा पढ़ लेंगे ।43
इसी जीवन में संदेशों
/उपदेशों का भी उतना ही महत्त्व
है जितना हमारा भोजन ,
ये सन्देश हमें तमाम
विषम परिस्थितियों से बाहर निकलने में मदद करते हैं और जीवन कला को निखारते भी हैं
-
होगा सवेरा/ठान लो जो
मन में/......./नेह से भरे/दीपक जला लो/ये दुनिया सजा लो । 9
हमने लिखा/चिड़िया उड़ो
तुम/......../लिखते रहे/सदा मुक्ति का गीत/होकर भयभीत ।10
इस खंड में श्रृंगार का भी पुट हमें
मिलता है जो हमारी जीवनदृष्टि को प्रेममय बना देती है ,प्रेम की अभिव्यक्ति दुनिय की सबसे कठिन विधा मानी जाती है; इसलिए इसका आज तक खुले रूप से इसे व्यक्त कर
पाने में बहुत से लोग असफल ही रहे हैं। इसकी अनिवार्य शर्त है जीवन में सरल और निष्कपट
होना और इस जीवन में यही सबसे कठिन है -
प्रेम का थार /आक्षितिज
फैला था/......../कंठ था सूखा/चूर-चूर संकल्प/खाली हाथ लौटे । 15
पुकारोगे जो/मैं ठहर
जाऊँगा/........./मेरे द्वार को/सदा खुला पाओगे/गले लग जाओगे। 21
‘तीसरा पहर’ में काम्बोज जी ने कुछ
ऐसी रचनाएँ शामिल की हैं, जो कोई अपने दीर्घ
अनुभवों के बाद ही लिख पाता है। वैसे भी ये गहरे अर्थों की गागर हैं ,जिनमें सागर भरा हुआ है और ये रचनाकार की कलम की
संतृप्तता की ओर भी इशारा करती हैं । आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता जी के लिए लिखा गया चोका -26 खुशबू का सफ़र
जारी एवं डॉ.हरदीप कौर जी के लिए लिखा गया चोका -25 शुभकामनाएँ
में आपकी उनके प्रति एक श्रद्धा का भाव व्यक्त करता है
घर लौटोगे/आँगन में
आकर/......./पहली दफ़ा/बिन मिले जाओगे/हमें न छू पाओगे । 13
आएँगे नहीं/नज़र किसी को
भी/......./बाँटा था प्यार/शूल ही मिला हमें/अनुताप न कोई । 34
मैं सूरज हूँ/अस्ताचल
जाऊँगा/......../छूकर तुम्हें/गले लग जाऊँगा/दर्द भी पी पाऊँगा । 44
यह संग्रह अब हिंदी
साहित्याकाश में चार चाँद लगाने को प्रस्तुत है, जिसकी सभी साहित्य प्रेमियों को प्रतीक्षा थी। इस पठनीय और शोध
ग्रन्थ को जितना भी पढ़ा जाए कम ही लगता है ,पाठकों को मेरी सलाह है कि इसे एक बैठक में पढ़ने की भूल कभी ना
करें। जाने कितने संग्रहों के साथ काम्बोज जी ने इन विधाओं को सींच कर
पुष्पित-पल्लवित किया है अब हम जैसे नवरचनाकारों का यह दायित्व है कि इस कड़ी को
सही दिशा में लेकर चलें ।
मेरी अनंत शुभकामनाएँ
..।
रमेश कुमार सोनी
LIG-24 कबीर नगर ,फ़ेज -2 , रायपुर
रायपुर -छत्तीसगढ़ ,पिन-493 554
संपर्क-7049355476
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‘तीसरा पहर’ – ताँका,सेदोका,चोका संग्रह -रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रकाशक- अयन प्रकाशन,महरौली- नई दिल्ली 110030 ,सन-2020
मूल्य-100/-रु. ,पृष्ठ-79 , ISBN.NO.-978 -93 -89999 -37-2
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सुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई शुभकामनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने। इस पुस्तक को काम्बोज भाई ने मुझे समर्पित किया है, इससे बड़ा सम्मान, पुरस्कार और उपहार कुछ हो ही नहीं सकता मेरे लिए। काम्बोज भाई की लेखनी की उत्कृष्टता और गहराई से मैं अचम्भित होती हूँ। वे जिस विधा में भी लिखते हैं अत्यंत प्रभावशाली और भावपूर्ण होता है। पुस्तक के लिए काम्बोज भाई को बधाई व आभार। प्रभावपूर्ण समीक्षा के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने। इस पुस्तक को काम्बोज भाई ने मुझे समर्पित किया है, इससे बड़ा सम्मान, पुरस्कार और उपहार कुछ हो ही नहीं सकता मेरे लिए। काम्बोज भाई की लेखनी की उत्कृष्टता और गहराई से मैं अचम्भित होती हूँ। वे जिस विधा में भी लिखते हैं अत्यंत प्रभावशाली और भावपूर्ण होता है। पुस्तक के लिए काम्बोज भाई को बधाई व आभार। प्रभावपूर्ण समीक्षा के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने। इस पुस्तक को काम्बोज भाई ने मुझे समर्पित किया है, इससे बड़ा सम्मान, पुरस्कार और उपहार कुछ हो ही नहीं सकता मेरे लिए। काम्बोज भाई की लेखनी की उत्कृष्टता और गहराई से मैं अचम्भित होती हूँ। वे जिस विधा में भी लिखते हैं अत्यंत प्रभावशाली और भावपूर्ण होता है। पुस्तक के लिए काम्बोज भाई को बधाई व आभार। प्रभावपूर्ण समीक्षा के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत शानदार पुस्तक की बहुत बढ़िया समीक्षा...आद.हिमांशु भैया जी को और आपको हार्दिक शुभकामनाएँ!
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