संवेदनाओं के सीपियों में हाइकु के मोती ...
हिंदी
साहित्य में हाइकु की अब एक विशिष्ट पहचान है इसके कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
, सोशल साइट्स में कई समूह चल रहे हैं ; पत्र – पत्रिकाओं ने इस पर अपने विशेषांक
निकाले हैं | जापानी मूल की विधा हाइकु वास्तव में एक सम्पूर्ण कविता है जो
संवेदनाओं के सागर में से मोती निकालने जैसी कठिन विधा है | सत्रह वर्णों की तीन
पंक्तियों में कुछ भी लिख दिया जाना हाइकु नहीं होता ; हाइकु लिखना और रचना में
बहुत फर्क होता है | हाइकु के काँधे पे सवार होकर इन दिनों हिंदी साहित्य देश –
विदेश की यात्रा करते हुए अपने आप को धन्य मान रही है , वाकई इसने हिंदी का मान
बढ़ाया है |
अन्य विधाओं की तरह
बढ़ती उम्र के साथ – साथ हाइकु लेखन में परिपक्वता आने लगती है ; हाइकु किसी क्षण
विशेष को अनुभूत करते हुए उसे अपने विचारों के साथ शब्दांकित करने का नाम है जो
पूर्ण मनोयोग से ही संभव है | अनिता जी का प्रथम हाइकु संग्रह – ‘ चाँदनी की
सीपियाँ ’ में 309 हाइकु हैं जो चार भाग क्रमशः – भाव कलश, प्रतिबिम्ब, चाँदनी की
सीपियाँ एवं जीवन तरंग खण्डों में विभक्त हैं | एक स्वतंत्र लेखिका के तौर पर आपकी
विविध रचनाएँ , कई विधाओं में विविध पत्र – पत्रिकाओं तथा सोशल साइट्स पर प्रकाशित
हो चुकी हैं |
इस संग्रह की हाइकु में कई रंग देखने को मिलते
हैं जैसा कि अनिता जी का अपना परिवेश है उसी के अनुरूप उनके हाइकु के अंदाज़ भी हैं
| रिश्तों से घिरे हुए मन में , सभी को
कुशलता से निभाते हुए जो अनुभव आपने कमाए हैं वे सभी इसमें बोलते हैं चाहे वे बेटी
की विदाई का दृश्य हो , रिश्तों की दरकन हो या जब रिश्तों को निभाने के बजाए
भुनाने वालों की बातें हों -
माँ सिसकती / आँगन हुड़कता / हो बेटी विदा |
बेटी पराई / ससुराल में खोजे / माँ – सी रजाई |
जीवन धूप / गुलमोहर छाँव / साथ तुम्हारा !
पड़े फफोले / अपनों को ढूँढने / रिश्ते जो चले |
दीवारें रो दीं / आँगन है शर्मिंदा / जो घर
टूटा |
यादें हाइकु को पुरानी दुनिया की सैर
में ले जाती हैं - कभी ख़ुशी तो कभी गम दिखाने | दुःख के साए जब घेरकर मन को व्यथित
करते है तो लेखनी का स्रोत बह निकलता है कभी आँसू बनकर तो कभी हूक बनकर | यादें
हैं , यादों का क्या कभी पढ़ लिया तो कभी समेट लिया , आपने इसे पालकी में बिठाया है
, गाँव बसाया है और इसके मेले भी सजाए हैं , पढ़िए -
सूखते ख्वाब / यादों की अलगनी / जोहते बाट |
महकी गली / याद दुल्हनिया की / पालकी चली |
यादों को बाँधा / दिल में मैंने एक / गाँव
बसाया |
नारी जीवन में श्रृंगार का विशेष
महत्त्व होता है और इससे जुड़े कई गुदगुदाते एहसास होते हैं जिन्हें हाइकु में
आसानी से ढाला जा सकता है | श्रृंगार हाइकु की बाह्य सुन्दरता हैं जिसके बिना जीवन
की कल्पना भी नहीं की जा सकती ; इसके दोनों पक्षों संयोग और वियोग का संतुलन भी होना
चाहिए | आपके हाइकु में चाँद केन्द्रीय भाव में प्रस्तुत हुआ है जो संभवतः करवा
चौथ की महक का असर है ? आइये इन हाइकु को सराहें -
माथे पे मेरे / उगे सिंदूरी चाँद / दिया लजाए |
प्रेम लिखता / नर्म , भीगे मन पे / अमिट कथा |
घटा के केश / चाँद से चेहरे को / छेड़े सजाए |
प्रकृति वर्णन हाइकु का आधार एवं मुख्य विषय होते हैं अतः
किसी भी संग्रह में इसका होना आवश्यक है | प्रकृति से घिरा हुआ मानव जीवन उससे
प्रभावित होता है और प्रभावित करता भी है | मौसम की चर्चाओं में प्रकृति का मुख्य
स्थान होता है ऐसे में रचनाकार इसके वर्णन से बच नहीं सकते और ऋतुओं को अपने हाइकु
में समेट लेते हैं | चाँदनी की सीपियाँ संग्रह में ये कहीं आँसू तो कहीं लहरों के
रूप में दिखी है | सर्दी की धूप का मज़ा , बर्फीले लिबास में धरा , गर्मी की बातें
और वर्षा का टिपटिप के बीच मुस्काता गुलमोहर वाह ....
सर्दी की धूप / शरमाती , झाँकती / छिप – छिप के
|
प्रकृति हँसे / बर्फीले लिबास में / क्या खूब
खिले |
ऊबे – ऊबे से / बेड़ियाँ डाले चले / गर्मी के
दिन |
धरती तपे / सर उठा मुस्काता / गुलमोहर !
बरसा देखो / उदासी का बादल / फूट के रोया |
कैसा ये गीत / हवाओं ने छेड़ा / रो पड़े मेघ
|
केसरिया सलोना चाँद और
हरी - भरी वसुधा में पतझड़ के सन्नाटे की आवाज़ झाँझर के साथ तथा धूप – छाया के
संयोग का सुन्दर दृश्य इन हाइकु में देखते ही बनता है-
आज की रात / केसरिया है चाँद / प्यारा सलोना |
बिखरी धूप / धरा के मुख पर / ढीठ लटों सी |
पहने धरा / सुनहरी झाँझर / पतझर में |
हरा बिछौना / पीली चुनरी ओढ़े / धरा है सोई |
प्रकृति कभी किसी की लालच की पूर्ति
नहीं कर सकती , मानव सदा से ही प्रकृति का दोहन करता रहा है और इसके संसाधनों के
रक्षण की उसने कभी सुध ही नहीं ली फलतः पर्यावरणीय समस्याओं के सामने हम बौने हो
जाते हैं | इन हाइकु में अद्भूत चेतना है – विषयुक्त आहार लेने से उपजी समस्याएँ ,
प्लास्टिक का प्रदूषण और कटते हुए वनों से विलुप्त होते जन – जीवन की समस्याएँ
....
प्लास्टिक हँसे / पेड़ों के ठूँठ रोएँ / हवा जो
चले |
वृक्षों के लहू / सींचे जब धरती / प्रकृति रोए
|
पेट अपना / विष भरी बोतल / कैसे बचाएँ ?
प्रकृति भोर और साँझ के साथ चहकती है
और सो जाती है लेकिन इनके रंग आम जीवन में रच – बस जाते हैं | इन हाइकु में साँझ
मेघों का घूँघट करके लजाते हुई जा रही है और केश सुखाती भोर का ओस के मोती लुटाते
हुए आना आल्हादित करता है -
साँझ दुल्हन / काढ़ घन घूँघट / लजाती चली |
साँझ की लाली / आँखों में बसाकर / जागती उषा
|
केश सुखाती / भोर आई लुटाती / ओस के मोती |
बच्चे मन के सच्चे
होते हैं और हर इन्सान ये चाहता है कि उसके अन्दर एक मासूम बच्चा सदैव साँसे लेते
रहे जो उसे इस आपाधापी की दुनिया में सुकून की जिंदगी दे सके लेकिन वक्त को कुछ और
ही मंज़ूर होता है | बच्चों पर हाइकु लेखन को मैं सबसे कठिन मानता हूँ ; इस संग्रह
में इनकी हँसी की खिलखिलाहट सभी को बच्चा जरुर बनाएगी ; आइए इसकी बानगी देखें -
रंग – बिरंगी / बाहों का झूला झूलें / फूलों से
बच्चे |
पेड़ों पे झूले / बचपन ले पींगें / बहना दिल |
सूरज घूरे / पेड़ों के दुशाले में / बच्चे जा
छिपे |
इंसानी जीवन का अंतिम चरण वृद्धावस्था होता है
जहाँ वह अपनों के साथ अपनी अनुभवों की किताबों को बाँचना चाहता है ; अपने पोते –
पोतियों के साथ फिर से बच्चा बन जाना चाहता है | सब चाहते हैं कि यह अवस्था जल्दी
बीत जाए और कभी उसे वृधाश्रम में जाना ना पड़े ; ऐसी अनेकों चिंताओं के साथ आपको
मैं इन हाइकु के साथ छोड़ रहा हूँ -
ढलती उम्र / जिंदगी के माथे पे / खींचें लकीरें
|
बाबा का चश्मा / मिल – बाँट के बना / गाँव की
आँख |
नीड़ उदास / उड़ गए हैं पंछी / बिखरी आस |
इंसानी जीवन में उत्सव का विशेष महत्व है ये
सभी उनकी उदास जिंदगी में खुशियों के पड़ाव होते हैं जहाँ से वह अपनी थकी – हारी
जिंदगी को रिफ्रेश करता है | भारत एक उत्सवधर्मी राष्ट्र है और सभी उत्सव अपनी लोक
मान्यताओं के साथ साहित्य में भी सदा से दमकते रहे हैं | हाइकु के इन उत्सव में
होली के रंग , दिवाली की रौनक , राखी का विश्वास , करवा चौथ का उपवास और भी बहुत कुछ
है -
खेलें सखियाँ / पिया तुम ना आए / मचले दिल |
प्रीत का रंग / मोहे रंग दो कान्हा / मैं , तू हो जाऊँ |
बहना प्यारी / स्नेह धागे में सजी / भाई कलाई |
भारत की आत्मा गाँव
में बसती है और गाँव प्रत्येक हाइकुकार के जेहन में मुस्कुराता रहता है कभी वह उसे
बुलाता है , कभी उसकी यादें उन पलों को याद कर हुलसती हैं | हाइकु , बिना गाँव के
अधूरे ही रहेंगे , आवारा भटकता हुआ – लावारिश सा ; इसे गाँव की खुशबू , मिट्टी ,
खेत , पगडण्डी , चौपाल , .......और रिश्तों का समर्पण बहुत भाते हैं -
चूल्हे का धुआँ / साँझी रोटी का स्वाद / गाँव
की खुश्बू |
भोर से जागें / ये गाँव की गलियाँ / सँझा से
ऊँघे |
देखो ठिठुरी / गरीब की झोंपड़ी / जमी , पिघली
|
इस संग्रह में अनिता ललित जी के अनुभवों की पोटली खुली है जिसके कई रंग देखने को मिले | आपमें एक
विशिष्ट हाइकुकार की अनंत संभावनाएँ छिपी हुई हैं ; आपके हाइकु पढ़कर कहीं से ऐसा
नहीं लगा कि ये आपका पहला संग्रह है | यह
संग्रह ईश्वर , गुरु की आराधना से आरम्भ होकर मानव जीवन के विविध पहलुओं को छूते हुए
साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ गया है | मुझे विश्वास है कि इस संग्रह
में प्रतिबिम्ब और चाँदनी की सीपियों का खंड सभी सुधि पाठकों को हाइकु की सैर पर
अवश्य ले जाने में सफल होगा |
मेरी
हार्दिक शुभकामनाएँ ......
पूजा की थाली / सजे प्यार – विश्वास / कुंकुमी
आस !
हों तेरे द्वारे / नित नए सवेरे / सुखों के
डेरे |
[ समीक्षक – रमेश कुमार
सोनी – छत्तीसगढ़ ]
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चाँदनी की सीपियाँ – हाइकु संग्रह , अनिता ललित
प्रकाशक
– अयन प्रकाशन , महरौली – नई दिल्ली सन - 2015
पृष्ठ
– 100 , मूल्य –200Rs. , ISBN NO. – 978-81-7408-807-9
भूमिका – श्री रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु ’ ,
संपादक – हिंदी हाइकु
समीक्षक
– रमेश कुमार सोनी ,एच.पी.गैस के सामने ,जे.पी.रोड – बसना,
जिला–महासमुंद [छत्तीसगढ़]पिन – 493554 मोबाइल
–7049355476
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परिश्रमपूर्वक लिखी गई समीक्षा।
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