हिन्दी कविता , हरी - भरी यात्रा

हरी - भरी यात्रा 

हरी - भरी घांस उग आती है
पहली फुहारों के साथ 
पता नहीं कहाँ थी इतने दिनों ? 
चट्टानों को हरियाने की कूबत रखने वाली घांस 
बूढ़ा जाती है बारिश के बाद । 
महीनों विदेश यात्रा से लौटने के बाद भी 
दूसरी भाषा - बोली नहीं बोलती घांस ! 
वही पुराना दोस्ताना संबंध रखती है - 
कीड़ों एवं ओस बूंदों के साथ ; 
घांस देख चुके हैं - ग्लोबल वर्ल्ड के 
कत्लखाने , मुर्दाघर , बारुद फैक्टरी , विदेशी स्कूल , भीड़ का भाड़ बनना 
आतंक और भेड़ चाल का मोहल्ला 
रिश्वत , हत्या एवं बलात्कार का नंगा नाच । 
आदमी की दुनिया में इन दिनों उदास है घांस 
फिर भी अपने बंजारे मन के साथ 
आराम फरमाने पसर जाती है
ये सिर्फ मानसून के आश्वासनों पर जिंदा हैं 
जैसे जिंदा हैं लोग इन दिनों 
नंगी मिट्टी का भूरापन चुभता है मुझे ।  
घांस कुचले जाने के बाद भी 
हरियाना जानती है 
वह कभी बंदूक नहीं उठाती , 
इसकी किसी से बैर भी नहीं 
लेकिन यदि घांस ना हो तो सभी को 
उनकी औकात समझ में आ जाती है 
इन दिनों घांस हो जाने का मन करता है । 
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