समीक्षा
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हिंदी
हाइकु का मानक ग्रन्थ
हाइकु-1989,1999 एवं 2009 तक कुल=130 तथा इस अंक (चतुर्थ प्रतिनिधि संकलन- हाइकु-2019) के 65 हाइकुकारों को मिलाकर कुल-195 हाइकुकार अब तक इसमें शामिल किए
जा चुके हैं. विगत 30 वर्षों की अथक परिश्रम के आधार पर यह हिंदी हाइकु का यह
एक ऐसा मानक ग्रन्थ है जो यह दर्शाता है कि इस विधा के इस देश में कुल कितने अग्रणी
हाइकुकार हैं जो अपनी लेखनी से हिंदी की सेवा में सतत लगे हुए हैं. यह हिंदी हाइकु
की मानक ग्रन्थों की एक प्रशंसनीय सतत
श्रृंखला है . इसके द्वारा एक सन्देश यह भी देने की कोशिश है कि सभी रचनाकार
एक-दूसरे के हाइकु के मर्म एवं उनकी रचना प्रक्रिया से होकर गुजरें और उनकी
अनुभूतियों के सागर में गहरे गोते लगाएँ.कमलेश भट्ट कमल एवं डॉ.जगदीश व्योम का
यह प्रयास हाइकु को एक नई दिशा देने में
समर्थ हुआ है तथा यह भविष्य के हाइकुकारों के लिए एक सन्देश है कि हाइकु लेखन की
इस प्रक्रिया पर हमें अग्रसर होना है.
हाइकु अब भारत में एक
जानी-पहचानी विधा है जिसके कई एकल और सामूहिक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं वहीं कई
पत्र- पत्रिकाओं ने इसके विशेषांक भी निकाले हैं. हाइकु किसी क्षण विशेष की
संवेदनाओं की घनीभूत संप्रेषणीयता है जिसमें उस वक्त और परिस्थितियों के अनुसार
कोई रचनाकार उसमें विविध छटाएँ उकेरने में समर्थ होते हैं. कोई भी हाइकु तभी
हाइकु कही जा सकती है जब अपने आपमें वह एक सम्पूर्ण कविता हो,यह मात्र सत्रह
वर्णों में तीन पंक्तियों का ढाँचा मात्र नहीं है. यह संग्रह विगत एक दशक की हाइकु रचनाधर्मिता
का एक प्रतिनिधि संकलन है जिसमें रचनाओं
को वरीयता दी गई है जो यह दर्शाती है कि यह विधा परिमाण नहीं गुणवत्ता की विधा है
,इसलिए ही हाइकु रचना को शब्द साधना का नाम दिया गया है.इस अंक में महिला
रचनाकारों की संख्या में वृद्धि एक सकारात्मक सन्देश देती है कि अब हाइकु लेखन की
मुख्य धारा में मातृ शक्तियाँ अधिक सक्रिय हो गयी हैं .
इस संग्रह के
हाइकुकारों की रचनाओं के विविध रंग यहाँ अपनी उत्कृष्टता लिए प्रकट हुए हैं तथापि
हाइकु को, प्रकृति वर्णन की विधा मानी जाती रही है . इस क्रम में प्रकृति के अनेक
रंग अपनी मोहक छटाओं के साथ हाइकु बनकर यहाँ दर्शित हैं. प्रकृति पर पहले भी कई
हाइकुकारों ने अपनी लेखनी चलाई है लेकिन इसकी अपनी विशिष्टता है कि इस पर जितना भी
लिखा जाएगा वह कम ही होगा तथा कुछ तो नया
लिखने को शेष रह ही जाता है ;इसी नए की खोज करना और लिखना ही किसी को हाइकुकार
बनाता है. भोर की ताजगी ,स्वच्छ हवा,परिंदों का कलरव,प्राची की लालिमा के संग भजन के साथ जिन्दगी का आरम्भ हमें सदैव से भोर की
महत्ता की अनुभूति कराते रहे हैं ,आइए देखें यहाँ इन हाइकुकारों ने इसे किस दृष्टि
से देखा है-
.झरा भोर में/चिड़ियों के पंखों से/दिन चंचल. -विवेक
कविश्वर
.धो रही उषा/रात वाली ओढ़नी/झरे कोहरा!. -डॉ.शिवजी
श्रीवास्तव
.बूँदों नहाई/लजाकर मुस्काई/सुबह आई. -रीमा
दीवान चड्ढा
.कोकिल कूकी/रश्मि खिलखिलाई/अँधेरा छँटा. -प्रियम्बरा
मिट्टी
की सोंधी गंध जब वर्षा की पहली फुहार के साथ हमें विशिष्ट आनंद की अनुभूति देती है
वहीं मूसलाधार सावनी बारिश हमें पिया की यादों और झूलों की और भी बुलाती है .यही
वो समय है जब हमारी वसुंधरा हरी वेशभूषा में होती है और इसे सँवारने में लगे मेघ,कृषकों
की टोलियाँ,मजदूरों का गीत एवं.....सब कुछ जीवनदायिनी है यह वर्षा अपने कृषिप्रधान
देश के लिए अमृत के जैसे हैं.इन्हीं छटाओं को हम इन हाइकु के माध्यम से अनुभूत कर
सकते हैं -
.धरा गुल्लक/मेघों ने भर दिये/बूँदों के
सिक्के. -नरेंद्र श्रीवास्तव
.वर्षा लगाए/धरा की बिवाई में/बूँदों का लेप.
-डॉ.राजीव गोयल
.वर्षा की बूँदें/मिट्टी की है खुशबू/महका
मन!. -के.बी. व्यास
.मेघों ने खोले/बूँदों के पैराशूट/उतरे ओले. -अभिषेक
जैन
झरने-नदी,पहाड़,खेत,जंगल,पशु-पक्षी,चाँद-सितारों के अनेक रंगों और
दृश्यों को समेटने की चाहत हर किसी के वश की बात भी नहीं ,ये कमाल वही कर सकते हैं
जिनके पास अपनी विशिष्ट जागृत अनुभूति हो.इन हाइकु को पढ़ने से हमें एक
सम्पूर्णता का अहसास हो जाता है वरना तो हर कोई इसे देखकर यूँ ही गुजर जाता है कि-उपवन
में पुष्प खिले हैं और उन पर रंग- बिरंगी तितली और भौंरें गुंजायमान हैं . आइए इन
हाइकु में दर्शित अनुभूतियों के संग दो कदम चलें -
.पारा हो गयी/नदी पिघलकर/चाँद के साथ!. -मंजु
मिश्रा
.झरना बहे/पहाड़ लाँघकर/जीने की चाह!. -डॉ.आशा
पाण्डेय
.कपास खेत/गगन से उतरे/चाँद अनेक. -तुकाराम
पुंडरिक खिल्लारे
.उड़ी तितली/रंगों का प्याला पी के/पुष्पों के
हाथ!. -अविनाश बागड़े
.झरता पत्ता/मैं कब्रों के बीचमें/निःशब्द
खड़ी!. -विभारानी श्रीवास्तव
धूप
पर बहुतों ने यहाँ अपनी लेखनी चलाई और इसे किताबों में बंद करने की कोशिशें की है
ताकि इसकी गर्माहट हर पाठक महसूस कर सके. कोई इसे सिपाही कह रहा है ,कोई दुल्हन,तो
कोई और कुछ... , इन्हीं सुन्दरता को हम रेगिस्तान से लेकर हमारे हर क्षण में
अनुभूत कर पा रहे हैं -
.सूर्य सिपाही/सबको मारे कोड़े/लू-लपटों के. -आचार्य
भागवत दुबे
.धुन्ध समेट/पल्लू में बाँध लाई/धूप दुल्हन. -आभा
खरे
.बाँच रही है/धूप की प्रतिलिपि/कुपढ़ साँझ. -डॉ.अश्विनी
कुमार विष्णु
.रूठ के बैठी/मेघ से तू तू मैं मैं/छज्जे पे
धूप. -गुंजन अग्रवाल
.रेत के धोरे/तेज पवन संग/उड़ने दौड़े. -सूर्यकरण
सोनी ‘सरोज’
यही
धूप कभी पोते का स्पर्श है ,कभी बच्ची ,कभी गौरैया,कभी बातूनी,कभी सिंदूरी तो कहीं
इनसे लजाती झाड़ियों का सौन्दर्य हमें लुभाने के लिए पर्याप्त है-
.पोते का स्पर्श/दादू की देह पर/जाड़े की धूप. -आर.बी.अग्रवाल
.चल पड़ी है/थामे रवि का हाथ/बच्ची-सी धूप. -सुधा
राठौर
.देह मुंडेर/कुछ देर चहकी/धूप गौरैया!. -बुशरा
तबस्सुम
.सिंदूरी साज/कत्थई शामियाना/दुल्हन शाम!. -मानोशी
चटर्जी
.झाड़ियाँ झाँकें/शिलाओं की ओट से/लाज के मारे.
-डॉ.पूर्वा शर्मा
.डगर सूनी/जी बहलाने आयी/हवा बातूनी!. -डॉ.कुँवर
दिनेश
प्रकृति
का दूसरा और भयावह रूप उसका प्रदुषित होना है जो मानवीय लालच युक्त गतिविधियों का
परिणाम है.प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की जिम्मेदारी से विमुख लोग प्रकृति के
समक्ष जब बौने होते हैं तभी ये सभी त्राहिमाम कर उठते हैं.हमें चाहिए कि प्रकृति
के संरक्षण के लिए पौधे लगाएँ,पानी बचाएँ एवं अपनी प्राकृतिक संसाधनों
को सहेजें अन्यथा इन हाइकु के भावार्थ के जैसी स्थिति हमारी भी हो जाएगी-
.पानी हमारा/खरीदार भी हम/पैसा उनका!. -चंद्रभान
मैनवाल
.सूखी नदियाँ/टूटती आवाज में/माँगती पानी!. -डॉ.सूरजमणि
स्टेला कुजूर
.झील में चाँद/गरीब की थाली में/चुपड़ी रोटी. -डॉ.रामकुमार
माथुर
.वृक्षों के नाम/विकास ने भेजा है/डेथ वारंट!.
-मीनू खरे
.तंग गलियाँ/घुस आया शहर/भौंचक्का गाँव. -डॉ.
प्रदीप शुक्ल
चार
दिन की इस जिंदगी में हमारे समक्ष कभी ख़ुशी कभी गम की स्थिति आती है ,जीवन की विविध
अवस्थाओं से होकर हम गुजरते हैं,ईश्वर के समक्ष हम सब मिट्टी के खिलौने
हैं ऐसी ही भावनाओं को व्यक्त करते हुए ये हाइकु अच्छे हैं-
.ख़ुशी मौन थी/हमने जाना नहीं/वह कौन थी. -हरिराम
पथिक
.चहकी गली/खुशियाँ बेच गया/खिलौने वाला!. -दिनेश
चन्द्र पाण्डेय
.ख़ुशी खेलती/धूप-छाँव का खेल/जीवन भर. -मनीष
मिश्रा ‘मणि’
.झूमते रहे/हवा के संग-संग/रस्सी पे वस्त्र. -उमेश
मौर्य
इस
जीवन में हम विविध भेदभावों के साथ जिन्दा हैं जिसमें लिंग भेद और विपरीत लिंग के
प्रति इस पुरुष प्रभुत्व का व्यवहार कभी-कभी कष्टप्रद हो जाता है इसे ये हाइकु
अच्छी तरह से रेखांकित करते हैं -
.फ्लैट में अब/सहमे कबूतर/आँखें मींचते. -भगवती
प्रसाद द्विवेदी
.तितली देख/पकड़ने को बढ़े/हाथ अनेक!. -डॉ.सुरंगमा
यादव
इस
जीवन में भूख प्रत्येक समस्याओं की जननी है और इस पर नियंत्रण किसी के वश में नहीं
है,इसका एक बड़ा कारण सामाजिक भेदभाव और बढ़ती जनसंख्या है.साम्प्रदायिकता,महँगाई,भूखमरी,रोज़गार की बड़ी समस्याओं के साथ किसानों की आत्महत्या जैसी अनेकों दृश्यों
से रोज अखबार भरे होते हैं इन्हीं भावों को दर्शाते हैं ये हाइकु-
.रेत के बीच/काँटों से बिंधे खड़े/नट कैक्टस. -पुष्पा
मेहरा
.भूख है बड़ी/सुबह को मिटाओ/शाम को खड़ी!.
-डॉ.वीणा मित्तल
.बढ़ता जाता/घर का मनीप्लांट/महँगाई सा. -शबाब
हैदर
.ऐ चाँद बता/तू मौलवी का चाँद/या पण्डित का?. -रति
चौबे
हम
सबकी जिंदगी में कुछ पल ऐसे आते हैं जब हम सब उसकी तुलना अपने किसी अच्छे समय के
साथ करते हैं और यहीं पर विडम्बनाओं की चादर फ़ैल जाती है जिसमें हाइकुकार लिख पड़े
हैं -पिज्जा का एम्बुलेंस से पहले पहुँचाना,घरों में विवश आधी आबादी,ऊँच-नीच के
भेद और दिव्यांग की कला की संवेदनाओं को उकेरने में ये हाइकु सक्षम हैं-
.मृत्यु के बाद/पहुंची एम्बुलेंस/वक्त पे
पिज्जा!. -कैलाश कल्ला
.आंसू ही स्याही/औरत लिख रही/आग का गीत!. -शिव
डोयले
.दहलीज में/पाँव खड़े हैं चुप/अँधेरा घुप. -डॉ.ओम
प्रकाश सिंह
.जेठ की गर्मी/बुर्के में बैठी बहू/जेठ के
पीछे. -शेख शहजाद उस्मानी
.पहने फिरें/फरेब के लिबास/कीमती लोग!. -हरेराम
समीप
.आया सैलाब/देहरी लांघ गई/घर की लाज. -डॉ.रमा
द्विवेदी
.कुछ का पेट/बड़ा इतना जैसे/इण्डिया गेट? -घमंडीलाल
अग्रवाल
.यह आदमी/आदमी जैसा नहीं/साहब होगा. -डॉ.लाल
रत्नाकर
.दिव्यांग बाला/मुख से बना रही/हाथ का चित्र. -विष्णुप्रिय
पाठक
इन
सबके बीच यहाँ एक सन्देश देता हुआ हाइकु उल्लेखनीय है जो महाभारत की घटना को
वर्तमान कुव्यवस्थाओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत करने में समर्थ हुआ है-
.चेत गांधारी/दुःशासन उठे हैं/उघाड़ पट्टी!.-कमलेश
चौरसिया
बेटियों
के महत्व को सबने माना है लेकिन इनके बचाने और पढ़ाने को लेकर अभी भी बहुत प्रयास किया जाना शेष है.इन हाइकु में बेटी की विदाई
बेला का कारुणिक दृश्य है और आव्हान किया गया है कि लोग ,बेटियों का पाशविक विचारों
से रक्षा करें-
.खिलते कुल/महके फुलवारी/बोओ बेटियाँ!. -किरण
मिश्रा ‘स्वयंसिद्धा’
.विदाई बेला/कुण्डी में फँस गया/पल्लू का
छोर!. -सुनीता अग्रवाल ‘नेह’
इन
दिनों न्यूक्लियर परिवार में वृद्धों के हालात दयनीय हो चली है जिसके गवाह हैं -शहरों
में उग चुके वृद्धाश्रम ,जहाँ सिर्फ मौत की प्रतीक्षा में लाश जैसे लोग रहते हैं
ऐसी ही कुप्रथाओं पर करारी चोट करते हैं ये हाइकु-
.बूढ़ा ढूँढ़ता/घर के कचरे में/प्रेम की सुई. -योगेन्द्र
वर्मा
.वृद्ध
आश्रम/माँ-बाप खाते जहाँ/बेटे का गम. -सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’
.वृद्धाश्रम की/बढ़ गयी रौनक/महल सूने!. -डॉ.सोनिया
‘प्रियदर्शिनी’
रिश्तों
की दुनिया यदि देखनी हो तो हमें इसे गाँव से सीखना होगा क्योंकि वहाँ रिश्तों की
लहलहाती फसल सदैव देखी जा सकती है.इन दिनों रिश्तों को अपेक्षाओं का दीमक चाट रहा
है,विश्वास की कमी से गूँगे-बहरे से होकर
ये रिश्ते उपेक्षितऔर बेमानी होने लगे हैं.कच्चे धागों से बंधे ये रिश्ते
बहुत कोमल होते हैं जो सिर्फ विश्वास की भूमि में महकते हैं.आइए इन हाइकु के साथ
अपने रिश्तों की परख करने का प्रयास करें-
.खोखले हुए/दीमक लगे रिश्ते/ढहा मकान!. -पुष्पा
सिंघी
.झुँझलाए-से/अब सारे रिश्ते हैं/गूँगे-बहरे!. -सुनीता
काम्बोज
.मीट्टी न धूल/विश्वास से महके/रिश्तों के
फूल. -बलजीत सिंह
.बच्चों की मैया/भीड़ गयी बाज से/छोटी गौरैया!.
-डॉ.मधु चतुर्वेदी
.अम्मा औ बाबा/घर में है सबके/काशी औ काबा!. -अमन
चाँदपुरी
.काजल नहीं/नींद नहीं आँखों में /आँसू ही
आँसू!. -रेखा रोहतगी
इस
जीवन में प्रेम की गली अति संकरी है जो इसमें जितना डूबा है है वो उतना ही पार
उतरा है बिना प्रेम-प्यार के जीवन नीरस हो जाता है.आखिरकार इस मिट्टी के जीवन को
एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है और खाली हाथ जाने के लिए ज्यादा जुटाने का कोई
महत्व ही नहीं है .इस किराए के शारीर में हमारी आत्मा साँसों के साथ ही निकल जाएगी
इसलिए गुनाहों और पाप की गठरी का बोझ तत्काल उतार कर फेंक देना चाहिए. ऐसा ही जीवन
राग सुनाते ये हाइकु दृष्टव्य हैं-
.साँसों का सूत/बुनूँ प्रेम-ओढ़नी/बन जुलाहा. -डॉ.अनीता
कपूर
.भीग करके/गठरी भारी हुई/उतार फेंक!. -आर.पी.सारस्वत
.साँसों की तान/ये देह का तम्बूरा/जीवन गीत. -नीलम
अजित शुक्ला
.ओस सा लघु/विराट ब्रम्ह जैसा/तेरा जमावड़ा. -संजय
मल्होत्रा
.तन सराय/मोह-माया अटैची/साँसें अतिथि!. -ऋतुराज
दवे
इस संग्रह के
सभी हाइकु खरे हैं और अपने-अपने दृश्यों
के साथ न्याय कर रहे हैं , ये सीधे ही पाठकों के दिलो-दिमाग तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब
हुए हैं. हाइकु अपनी लघुता के साथ भावों की सघनता के लिए भी जाने जाते हैं; ये
अनुभूत दृश्यों को रचनाकारों के विचारों से पगे हुए आते हैं. यह हाइकु संकलन
संभावनाओं के नए द्वार खोलता है इस उम्मीद के साथ कि आने वाली पीढ़ियाँ इसका अनुसरण
करते हुए नई अनुभूतियों को लिपिबद्ध करते हुए इस परंपरा को जीवित रख सकें. इस अंक के बहुत से रचनाकार प्रतिष्ठित
हैं यद्यपि उन्होंने अभी इस संकलन में अपना योगदान दिया हैं ,इनमें से कुछ के
तो एकल संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं वहीं कुछ ने सम्पादकीय में अपनी छाप छोड़ी
है तथापि हाइकु 2019 ने आप सभी को एक मंच पर समेटकर एक बड़ा एवं सराहनीय कार्य किया
है ,इस अथक परिश्रम को नमन एवं इस अंक के सभी हाइकुकारों को मेरी बधाई एवं
शुभकामनाएँ .आशा है कि यह अंक सुधि पाठकों को अवश्य पसंद आएगा और हाइकु लेखन
की एक स्वस्थ परंपरा कायम होगी तथा इसके अगले अंक के लिए इस जमात की संख्या में और
इज़ाफा हो पाएगा.
रमेश कुमार सोनी
बसना , जिला- महासमुंद [छत्तीसगढ़] पिन-493554
संपर्क-7049355476 /rksoni1111@gmail.com
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‘हाइकु-2019’ संपादन- कमलेश भट्ट कमल एवं
डॉ.जगदीश व्योम
मूल्य-300/-Rs. पृष्ठ-151
ISBN-978-81-88465-48-4
प्रकाशक-नीतिका
प्रकाशन दिल्ली-95,फ्लैप-कमल किशोर
गोयनका ,केन्द्रीय हिंदी संस्थान-आगरा
समर्पण-डॉ.भगवत
शरण अग्रवाल एवं डॉ.अंजली देवधर की स्मृतियों को.
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श्रमसाध्य कार्य हेतु साधुवाद और हार्दिक आभार
ReplyDeleteबेहतरीन ।
ReplyDeleteसादर।