समीक्षा- सिंदूरी भोर हाइकु संग्रह


अद्भूत उर्जा से भरे अनुभूतियों की सिंदूरी भोर-

                  हिंदी हाइकु का अपना अलग ही रचना सौन्दर्य है जो किसी भी रचनाकार को लुभाता है यद्यपि इसकी लघुता में अपने आपको शब्दांकित करना दुष्कर है तथापि बहुत से ऐसे नामचीन हाइकुकार हैं जिन्होंने इस देहरी को लाँघते हुए हिंदी साहित्य की पताका को पूरे विश्व में फहराया है।  हाइकु अब किसी परिचय या अपनी रचना प्रक्रिया के लिए अजनबी नहीं है, हाँ इसमें कविता का ना होना कभी-कभी ,कहीं-कहीं अखरता है जो इसकी अनिवार्य शर्त है। मुझे कृष्णा वर्मा जी का सद्यः प्रकाशित संग्रह-‘सिंदूरी भोर बाँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है प्रथम दृष्टया इसकी विशालता ने मुझे लुभाया लेकिन इसकी सागर सी गहराइयों ने मुझे अपने आपमें डूबो लिया, इसमें 1070 हाइकु हैं। इसकी भूमिका जिसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु जी ने लिखा है इसमें ही इसकी विशालता के दर्शन हो जाते हैं।

                  आपमें दृश्यों के चित्रण की एक नयी दृष्टि है जो आपके हाइकु को नयापन देते हुए आपको सबसे अलग खड़ा करती है जिसमें है –संवेदना और विचारों का नाजुक संतुलन। यद्यपि हाइकु में लय या तुक को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है लेकिन रायबरेली की अंतर्देशीय पत्रिका ‘त्रिशूल’ जो डॉ.महावीर सिंह जी के सम्पादकीय में आती थी में इसे प्रमुखता दी जाती थी। इस दृष्टि से आपकी रचना शैली रायबरेली हाइकु के जैसी है। इस शैली में लयात्मकता प्रमुख होता था जो हाइकु की अन्य सभी विशेषताओं के साथ  विद्यमान होता था।

                  इस चराचर जगत में ऐसा कौन होगा जो भोर की उर्जा से अपने आपको तरोताजा महसूस नहीं करता होगा, इसी क्रम में हाइकुकार भी अपनी लेखनी से इसके विविध रंगों को समेटने का प्रयत्न करता है।  इस संग्रह में प्रस्तुत भोर के हाइकु यद्यपि अनेकों कलेवर में हैं किन्तु इसके मानवीयकरण ने इसमें उत्कृष्टता के रंग भरे हैं जो कहीं दुल्हन सी लजाती है, कहीं शैतान सी नटखट है, कहीं शीत में ठिठुरती है, तो कहीं यह सयानी है। इन सबमें इसके बिम्ब ने इसकी लाली को सँवार दिया है- 

सजी सँवरी/नारंगी ओढ़नी में/दुल्हन भोर।

ठिठुरी भोर/नभ के आँचल में/दुबक सोए।

शैतान भोर/पेड़ों की फुनगी के/माथे जा चढ़े।

सिंदूरी भोर/हरियाले खेतों में/पुरवा-शोर।

भोर का स्पर्श/स्वर्णिम बालियों का/दमका तन।

प्राची फड़के/फुनगी पे चिहुके/पंछी तड़के।

बाँध पाँव में/कुंदन की पायल/उतरे उषा।

चलने न दे/तम की मनमानी/भोर सयानी।

              हिंदी हाइकु में प्रकृति वर्णन का विशेष महत्त्व है यहाँ इसे आपने अपनी अनुभूतियों में गूँथकर शब्दांकित किया है। दिन में धूप से डरी हवा का बेड़ी पहने बैठने, साँझ का नभ में गोटा टाँकना और मोहिनी रात जैसे अनेकों दृश्य हमें अपनी आगोश में लेकर इन हाइकु का आस्वाद लेने से नहीं रोक पाते हैं; इस तरह एक पूरा दिन यहाँ हाइकु की गोद में बैठा हुआ है-

चमकी धूप/बेड़ी पहने हवा/बैठी है चुप।

धूप निगोड़ी/छाँव का हाथ धर/भागती फिरे।

गूँथती धूप/बदली के बालों में/कुन्दनी तारें।

खोल पिटारी/टाँके साँझ नभ में/गोटा-किनारी।

गोद ले नींद/देहरी-पर डोले/कुँआरी रात।

मोहिनी रात/नागिन-सी लहरे/रीझे है चाँद।

                 हवाओं की अपनी एक अलग ही सल्तनत होती है इसलिए प्रायः हम सभी इसकी शिकायतें करते ही रहते हैं जैसे-आज यह ठहर गयी है,आज चुभ रही है एवं आज यह बहुत गर्म है….आदि।  यहाँ के हाइकु में हवा बैरन है, साँकल बजाकर घर में प्रवेश चाहतीं हैं तो कहीं ये सेमल के बीज को अपने साथ श्वेत बगुले सा उड़ा ले जा रही हैं – ये सभी हाइकु अपनी रचना भाव की उत्कृष्टता के पैमाने पर खरे हैं जो मनमोहक भी हैं। हवा की शोखियाँ सभी को लुभाती भी हैं और डराती भी हैं इसलिए यहाँ हाइकुकार ने इसे अपनी चेतना को जागृत करते हुए रचा है-

ठोंके हवाएँ/किवाड़ों की साँकल/बरजोरी से।

हवा ले उड़ी/सेमल की शाखों से/श्वेत बगुले।

कसने लगी/तन के परिधान/बैरन हवा।

                इस संग्रह में प्रकृति का ऐसा कोई भी कोना आपने नहीं छोड़ा है ,ये आपकी विचार संवेदनाओं की विशालता है जिसे शब्दांकित करने के लिए अवश्य ही अद्भुत धैर्य की आवश्यकता होती है लेकिन यहाँ ठहराव नहीं है बल्कि गति है जो पाठकों को अपने दृश्यों के साथ बाँधकर बहा ले जाता है कभी नदी के जग में, कभी पेड़ की छाँह में सुस्ताने, तो कभी रेत के ढूहों की ओर।  आपके हाइकु संजीदा, प्रभावशाली, समृद्ध और संवेदनक्षम हैं; किसी भी दृश्य को अपने एक नए अंदाज़ में देखना और रचना किसी रचनाकार को विशिष्ट बनाता है तभी तो आप लिखती हैं – लहरें जो तैरती हैं पता नहीं इन्हें तैरना कौन सिखाता होगा कि ये इतने दक्ष हैं कि ये कभी डूबती नहीं।  

बाँकी लहरें/नदिया में तैरतीं/कभी न डूबें।

दरिया छाती/जाबाँज कश्तियाँ जा/खींचें लकीरें।

मेड़ों पे खड़े/देखें नदी उत्सव/काँस के फूल।

सुजान रुख/छड़ा मैदान खड़ा/बाँटे है सुख।

चैत से जेठ/घूमती गली-गली/बौराई रेत।

रेत चपल/घट भर पी गई/मेघों का जल।   

                  पता नहीं लोग ये क्यों नहीं सोचते कि यदि ये ऋतुएँ नहीं होतीं तो हमारी जिन्दगी कितनी बेरुखी हो जाती? इन ऋतुओं के साथ ही हमने अपने आपको बड़ा किया है हम सभी इसकी अठखेलियों और कभी इसकी बेवफाई से दो-चार हुए हैं। यहाँ का पूरा मौसम अपनी सभी छटाओं के साथ उपस्थित है इसलिए  यहाँ के प्रस्तुत हाइकु अनोखे ही बन पड़े हैं। हाइकुकार लिखती हैं कि-अकड़ू धूप पसीने से ग्रीष्म में लथपथ है, अंगोछा ओढ़े घड़ा प्यास बुझाने बैठा है-प्यासे की राह ताकते, बैशाख के खुशबू का झोला भरा हुआ है, वर्षा रानी की बूँदों को आपने झूले टँगी छोरियों की उपमा दी है, वहीं आपने पतझड़ को कोसने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है जब आप वृक्षों की पत्तियों को कंगन कहती हैं जिसे इस पतझड़ ने उतारकर पूरी ही कायनात को विधवा वेश पहना दिया है।  

देख सूर्य को/पसीने में नहाई/अकड़ू धूप।                                              

तड़पा पानी/घड़ा ओढ़े अंगोछा/गर्मी ना मानी।

धुंध की मारी/ढूँढे छज्जा अटारी/धूप बेचारी।

टाँगे बैशाख/हवाओं की खूँटी पे/खुश्बू का झोला।

पीली चूड़ियाँ/पहन अमलतास/नचाए हाथ।

रूठीं लताएँ/कंगन उतारे क्यूँ/पतझड़ ने।

घटा के पाँव/बजी पाजेब बूँदें/छनछनाईं।  

बुंदियाँ डोलीं/झूले टँगी छोरियाँ/हँसी-ठिठोली।  

                   फूल से खिलते-महकते रहने को काफी मशक्कत करनी होती है इस दर्द को सिर्फ कोई माली ही समझ सकता है या फिर कोई रचनाकार जो उसकी सुन्दरता को रचता है। इन हाइकु में आपकी कल्पनाएँ नियंत्रित हैं जो इसके सौन्दर्य को विश्वसनीय बनाती हैं। इन बागों से मैंने भी अपने सुधि पाठकों के लिए चंद हाइकु के पुष्प समेट लाया हूँ आशा है कि ये पसंद आएँगे; इनमें शर्माता गुलाब है, फूलों के गजरे हैं ,मालिन गिलहरी है और बाँस की फूली डरैया अँगड़ाई ले रही है-   

फूलीं लताएँ/फूलों के गजरों से/शाखें सजाएँ।

चूमे रश्मियाँ/शर्म से दहकता/सुर्ख गुलाब।

छू-छू के फूल/मालिन गिलहरी/करे ठिठोली।

नूर खुदाई/फूली बाँस डरैया/ले अँगड़ाई।

              चाँद को देखने का सबका अपना अलग अंदाज़ होता है कोई इसे चंदा मामा कहता है, तो कोई अपनी प्रेयसी से इसकी तुलना करता है और कहीं चकोर के किस्से भी हैं; दादी-नानी के किस्सों का यह प्रमुख पात्र सदा से रहा है। इस चाँद को इन हाइकु ने अपने आगोश में यूँ समेट रखा है-नीम की फुनगी पर लटका होना, चाँद का स्विच कौन ऑन करता है? कुँआरी आँखों के सपने में टहलता चाँद..

टहले चाँद/कुँआरी की आँखों में/दमकें स्वप्न।

करता कौन/चाँद का स्विच ऑन/खिले उजाला।

थामें उजास/नीम की फुनगी पे/लटका चाँद।

             इंसानी सभ्यताओं के साथ ही इस जीवन को सँवारने के लिए समाज में उत्सव परंपरा का आरम्भ हुआ ताकि बोझिल पल को उतारकर हम प्रकृति और अपने इष्टदेव को स्मरण कर सकें। आपने अपने हाइकु के माध्यम से भारतीय परम्परा के उत्सवों को अपनी कलम से रंगा है जो होली, दिवाली, राखी, करवा चौथ एवं…..अन्य सभी पर्वों की स्मृतियों को समेटे हुए हैं। आइए इन हाइकु के साथ हम भी अपनी उमंगों को नवजीवन प्रदान करें-

होरी पे चोरी/आँखों ने अँखियों से/की जोरा-जोरी।

अजब दम/जोड़ें कच्ची चूड़ियाँ/पक्के संबंध।

तीज हिंडोले/पीहर के अँगना/रौनक डोले।  

बाँसुरी धन्य/कान्हा के अंग छुए/राधा का मन।

                     आपके हाइकु में पर्यावरण संरक्षण की चिंता है जो प्रदूषण से मानवता को बचाने की गुहार लगाती हुई दिखती हैं। चेतना की कोख से जन्मती इन हाइकु में आपने लिखा है कि-तबाही मची हुई है, हवा, पानी, मिट्टी, आकाश में कब्जे की होड़ जाने कहाँ ले जाएगी इस मानवता को? हमारी लालचों ने इस पृथ्वी को छोटा कर दिया है और हम निकल पड़े हैं दूसरी दुनिया की खोज में! अपने प्रकृति के संरक्षण की चिंता सिर्फ वही कर सकता है जिसका इसके साथ दिल से जुड़ाव हो जो आपके हाइकु में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं।  

ढोर-डंगर/ना तन पे जंगल/बुच्चे पहाड़।

हवा विषैली/धरा भोगे पीलिया/नभ बीमार।

लुटा जीवन/प्यासे हैं पनघट/दिन उपासे।

                  इस संग्रह ‘सिंदूरी भोर में आपके हाइकु बहके नहीं है बल्कि बिखरे हुए हैं जिसे पढ़ने को धैर्य चाहिए इस तरह एक ही विषय के हाइकु को अलग–अलग स्थान पर रखने से पाठकों का ‘मूड स्विंग’ होता है तो उसकी सुन्दरता उससे ‘स्कीप’ हो जाती है।  आपने शब्दों की शुचिता पर आपने विशेष ध्यान रखा हुआ है, प्राकृतिक चेतना के साथ इसकी सुन्दरता का सूक्ष्मता से शब्दांकन है जो मानवीय चेतना की पक्षधर भी है।

इस पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह के लिए आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ।  

 रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर रायपुर, छत्तीसगढ़ 492099

7049355746 / 9424220209

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सिन्दूरी भोर-हाइकु संग्रह, कृष्णा वर्मा

अयन प्रकाशन-दिल्ली , सन-2021, ISBN:978-81-953477-2-8,

मूल्य-240/-Rs। , पृष्ठ-119 , भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु

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5 comments:

  1. सुन्दर पुस्तक की बहुत मनोयोग से की गई समीक्षा ,हाइकुकार एवम् समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई!

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  2. बहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

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  3. बहुत बढ़िया संग्रह की बहुत बढ़िया समीक्षा की है आदरणीय भाईसाहब!आप दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ 🙏🏼🙏🏼

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