‘पीपल वाला घर’ बहुत मायने रखता है
आदरणीय रमेश कुमार सोनी का कविता- संग्रह ‘पीपल वाला घर’ मिला। पर्यावरणीय जागरण और प्राकृतिक संरक्षण के प्रति गहन संवेदना से ओत- प्रोत कविताएँ पढ़ीं। कवि का प्रकृति के प्रति लगाव भी इन कविताओं में रचा-बसा है।
संग्रह का शीर्षक ‘पीपल वाला घर’ बहुत मायने रखता है। यह भारतीय संस्कृति में पीपल का महत्त्व तो बताता ही है, प्रतीक रूप में प्रकृति की जीवनदायी शक्ति का आभास भी कराता है। पीपल का वृक्ष वह शरण स्थली है, जहाँ जीवन का संचार होता है, तो सोचिए जिसने पीपल को शरण दी है, वह पीपल वाला घर अर्थात् प्रकृति क्या मायने रखती है?
जापानी साहित्य विधाओं को छह संग्रह समर्पित कर चुके साहित्यकार रमेश कुमार सोनी छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मण्डल व अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रयास किए हैं, जिसके लिए उन्हें राज्य स्तर पर कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। अपने इस प्रथम काव्य- संग्रह में विगत 20 वर्षों की अपने पर्यावरणीय जागृति अभियानों के दौरान हुई अनुभूतियाँ पाठक को उन्होंने इस उद्देश्य के साथ सौंपी हैं कि उनमें चेतना जगा सकें। कवि का कथन है कि पर्यावरणीय असाक्षरता ने हमें भारी सजा दी है। केवल चर्चा- वार्ता से कुछ नहीं होगा, हमें व्यावहारिक होना होगा, तभी हम बरी हो पाएँगे। हमें प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने की कला सीखनी ही होगी।
डॉ. अनिता सावंत (छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मण्डल) ने इस संग्रह की भूमिका में कवि के साहित्यिक धर्म के साथ प्रकृति के प्रति उनके धर्म से भी हमारा परिचय कराया है कि वे कागज पर अपनी कलम चलाते हुए केवल पर्यावरणीय समस्याओं पर बात ही नहीं करते हैं, बल्कि उनके समाधान के लिए धरातल पर सक्रिय रूप से कार्य- व्यवहार भी करते हैं। वे साहित्य को पर्यावरण की दिशा में एक प्रेरक बल के रूप में उपयोग कर पाठकों में संचेतना और सक्रियता बढ़ाते हैं।
आज पर्यावरणीय संकट दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। मानवजनित गतिविधियाँ पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ रही हैं। इस असंतुलन के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जीवन संकट में आ गया है। संग्रह की 51 कविताएँ न केवल इस संकट को व्यक्त करती हैं, बल्कि प्रकृति की ओर लौटकर उस संकट से बचने का उपाय भी बताती हैं।
संग्रह की पहली ही कविता ‘खुशियाँ रोप लें’ जीवन में प्रकृति का महत्त्व बताती है। प्राकृतिक चक्र में बँधे प्रकृति के शांतिपूर्ण वातावरण में जीते पशु- पक्षी प्राकृतिक चक्र से छूटे मनुष्य की स्थिति बताते हैं—
पक्षियों का झुंड/ शाम ढले ही लौट आया है... / गाय लौट रही है गोधूलि बेला में/ रोज की तरह रंभाते हुए/ क्या आपने कभी इनका विराम देखा?.../
कुछ लोग नहीं लौटे हैं/ अस्पताल से वापस,
इस स्थिति में मनुष्य को मनुष्य ने ही पहुँचाया है प्रकृति का हद दर्जे का शोषण करके—
हवा-पानी बिक रहा है/ नदियों के ठेके हुए हैं.../ साँसों की कालाबाजारी में—/ ऑक्सीजन का मोल महँगा हुआ है। (पृष्ठ 15)
मनुष्य के किए की कीमत मनुष्य को ही चुकानी पड़ रही है। जीने के लिए सबसे जरूरी है— हवा-पानी। उसे भी बेचा जा रहा है, ऐसे में कैसे जिन्दा रहा जाए? परन्तु प्रकृति के इस हद दर्जे के शोषण के बाद भी—
आज भी लोग/ कटते हुए पेड़ों पर चुप हैं/ प्लास्टिक के फूल बेचकर खुश हैं/ बहुत से बचे-खुचे हुए लोग/ मोबाइल में पक्षियों की रिंगटोन्स से। (पृष्ठ 16)
असली फूल, पेड़-पौधे, पंछी यानी प्रकृति को बचाने की चिंता किसी को नहीं, जबकि इन्हीं से जीवन खिलता, महकता, चहकता है। कवि इन्हीं खुशियों को रोपने का सभी से आग्रह करते हैं। कवि धरती माँ की दशा पर दुखी हैं कि जो कल सोने की चिड़िया थी, रत्नगर्भा थी, आज—
आज मुझे वो मिली है-/ जहरीली हवाओं की दमघोंटू साँस/ और अम्लीय वर्षा की चिंता लिए/ सीना छलनी हुआ/ बोरवेल से छिद्रित आँचल का दर्द लिए/ पानी के घूँट को तरसती/ सीने में ज्वाला धधकाती/ ओजोन की फटी छतरी ओढ़े/ विषैले कचरों का बोझा ढोए (पृष्ठ 19)
मनुष्य ने धरती को जिस दशा में पहुँचाया है, इससे धरती कुपित है और मनुष्य उसे मनाने के लिए वैश्विक चर्चा कर रहा है। और कवि—
इन सबसे दूर/ मैं पेड़ लगाते हुए/ अकेले बुला रहा हूँ/ लौटे हुए परिंदों को... / इस उम्मीद के साथ कि/ एक दिन कारवाँ जरूर बनेगा/ एक दिन जरुर ये नादान लोग/ शिकायत नहीं रहने देंगे कि—/ धरा: कौन जाने दर्द तेरा। (पृष्ठ 21)
ऊँची उड़ान भरती एक छोटी— सी चिड़िया हमारे सपनों में पंख लगा देती है। यह सब देखना कितना सुखद है मगर आज मुश्किल से कोई पक्षी भूले- भटके आसमान में उड़ता दिखाई देता है। कवि को विलुप्त हो रहे इन्हीं पंछियों की चिंता है—
इन दिनों सुन रहा हूँ/ आखिरी उड़ान का गीत/ ‘चल उड़ जा रे पंछी कि—/ अब ये देश हुआ बेगाना...’/ और इसी तरह एक दिन/ पूरा खाली हो जाएगा मेरा आसमान। (पृष्ठ 29)
कवि बाजारवाद की चपेट में आई नदी की दशा देखकर व्यथित हैं—
नदियों ने बसाईं सभ्यताएँ/ सभ्यताओं से उपजे बाज़ार/ और बाज़ार की वस्तुएँ हो गईं—/ एक-एक कर सारी नदियाँ। (पृष्ठ 36)
वे नदी को बचाने का अनुरोध करते हैं—
हम सबको बचाना होगा—/ अपने भीतर की नदी को/ तभी बच पाएगी— कोई नदी/ हमारी विलुप्तता से पहले। (पृष्ठ 37)
अगली कविता प्रगति और उपभोक्तावादी संस्कृति की आलोचना करती है—
लोग बोतलबंद आम आर्डर कर रहे हैं
प्रगति आम के बगीचों वाली दुनिया से बहुत दूर ले गई और उपभोक्तावाद ने आम के बगीचों में बाजार खोल दिया। प्रकृति जो सबकुछ हमें मुफ्त में देती थी, अब उन सब वस्तुओं की बाजार बोली लगा रहा है।
अमेजन और फ्लिपकार्ट मुस्कुरा रहे हैं/ यही एक दिन बेचेंगे भाड़े में हमें—/ छाया, आसरा, घोंसला, सुकून और.../ जैसे बिक रही है हवा और पानी बोतलों में!/ कितना पैसा है आपके पास इसे खरीदने को?
अपने जीवन का खोया हुआ वास्तविक सुख भी क्या आज हम खरीद पाएँगे? जो कभी हमें निःशुल्क मिलता था। कवि खोए हुए उसी वास्तविक सुख का पता बताते हैं—
आइए लौट चलें प्रकृति की ओर कोई/ प्रतीक्षा में है आपके ही गाँव में। (पृष्ठ 86)
अगली कविता में कवि का पीपल के साथ आत्मिक जुड़ाव है—
सोचता हूँ कि यदि यह पीपल न होता तो/ कैसे आते अतिथि/ कैसे आतीं मुझ तक चिट्ठियाँ...
पहले ये पेड़ हमारी पहचान थे, आज खुद ही गुमनाम हैं। लेखक का ‘पीपल- सा विश्वास’ इस पहचान को बनाए रखना चाहता है। उसे भावी पीढ़ियों के लिए बचाकर रखना चाहता है।
कुछ बरगद और कुछ पीपल/ ताकि इसकी निडर छाया में फिर लौट सकें—/ कुछ गौरैया और बगुले जैसे बच्चों की बरदी; (पृष्ठ 109)
अगली कविता में प्रकृति से दूर हुए शहरी लोगों की मनःस्थिति का चित्रण है जो पहले तो प्रकृति के स्वाभाविक रूप को नियंत्रित कर जीवन में अप्राकृतिक अव्यवस्था बनाते हैं और फिर अपनी यंत्रवत् दिनचर्या से तंग आकर प्राकृतिक शांति और स्वाभाविक सुख ढूँढने निकलते हैं—
आखिरकार एक दिन/ शहर ने सुना ही दिया कि-/ इनकी सेवा-सुश्रुषा करो/ आब-ओ-हवा बदल दो, दुआएँ करो/
अब ये प्लास्टिक के पहाड़ जैसे लोग/ गाँव में अपना घर ढूँढ रहे हैं— / नदी किनारे, जंगल के पास (पृष्ठ 126)
संग्रह की सभी कविताएँ समकालीन समाज के लिए एक चेतावनी हैं। आज जब पर्यावरणीय संकट हमारे समाज को विकट परिस्थितियों की ओर ले जा रहा है, ऐसे में हमें चेताते हुए पर्यावरण रक्षार्थ सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता का एहसास कराता यह संग्रह प्रासंगिक है। पर्यावरणीय चेतना को जागृत करता यह संग्रह साहित्य और समाज दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है।
इस संकटकाल में ‘पीपल वाला घर’ हमें याद दिलाता है कि यदि हमें भविष्य में जीवन की सुरक्षा चाहिए, तो हमें प्रकृति की शरण में जाना होगा।
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समीक्षक- रश्मि विभा त्रिपाठी
आगरा, उत्तर प्रदेश
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‘पीपल वाला घर’ (काव्य- संग्रह): रमेश कुमार सोनी, पृष्ठ: 129, मूल्य: 200 रुपये, ISBN: 978-81-19292-90-5, प्रथम संस्करण: 2023, प्रकाशक: जिज्ञासा प्रकाशन (ओ. पी. सी.) प्रा. लि., ई- 86, स्वर्ण जयंती पुरम, गाज़ियाबाद- 201002 (उ. प्र.)
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